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Opinion – हरियाणा राहुल गांधी के लिए एक लेसन है कि पार्टी किस तरह चलायी जाती है

अभी भी सोनिया गांधी ही कांग्रेस की सबसे बड़ी रणनीतिकार हैं। भूपेंद्र हुड्डा लगभग पार्टी छोड़ चुके थे और जिस तरह उन्हें दोबारा वापस किया, यह राहुल के लिए एक लेसन है।

New Delhi, Oct 29 : हरियाणा और महाराष्ट्र का चुनाव इस बार ऐसा था जहां विपक्ष नाम की कोई चीज नहीं थी। हाल यह थी कि कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष ही बीजेपी में चले गये। चुनाव से ठीक पहले आम चुनाव में जीते एनसीपी से जीते सांसद बीजेपी में चले गये। महाराष्ट्र में विपक्ष नेता विहीन था। लोग हंस रहे थे। चुनाव ऐसी रेस की तरह थी जहां दौड़ने वाला अकेला था। यही सूरत हरियाणा में थी। विपक्ष खंड-खंड बंट चुका था। चुनाव से एक महीने पहले तो कांग्रेस की पार्टी में कमिटी बनी थी। मतलब यह ऐसा चुनाव था जहां महाराष्ट्र में 250 तो हरियाणा में 75 सीट लोग मान चुके थे। उसपर बीच में धारा 370 और राम मंदिर के रूप में देश में धरम और राष्ट्रवाद के नाम पर परफेक्ट मसाला भी बना था जिसे टीवी न्यूज चैनल के माध्यम से पिछले तीन महीने में ऐसा परोसा गया था कि देश में लगा था कि वन पार्टी रूल अगले कई सालों तक स्थापित हो गयी है।

लेकिन गला सबका सूखता है,डर सबको लगता है और हर दिन एक समान नहीं होता है। चुनाव परिणाम ने यही साबित किया। बीजेपी भले दोनों जगहों पर सरकार बना लेगी लेकिन हरियाणा में गोपाल कांडा की मदद से तो महाराष्ट्र में अब शिवसेना के पूरी तरह शर्तों पर। मतलब दोनों जगहों पर सुख भरे दिन बीते रे भईया
-देश विपक्ष मुक्त हो सकता है लेकिन विपक्षी आवाज मुक्त नहीं। दोनों राज्यों की जनता ने बिना विपक्ष के भी सत्ता और ताकत का संतुलन कर दिया।

-देशभक्ति और हिंदू खतरे में है की भावना के साथ लंबे समय तक असली मुद्दे से भाग नहीं सकते हैं। मंदी है और जनता ने बताया। जिन इलाकों में फैक्टरी है वहां बीजेपी को बड़ी हार मिली है। भावनात्मक मुद्दों के बदाैलत बहुत दिनों तक टिक कर नहीं रख सकतर है। कांग्रेस का सेक्युलरिज्म का कार्ड जिस तरह बाद में बैकफाइर करने लगा,ये मुद्दे भी एक वक्त के बाद कोर सपोर्टरों के अलावा आम लोगों को नहीं लुभाएंगे।
-अभी भी सोनिया गांधी ही कांग्रेस की सबसे बड़ी रणनीतिकार हैं। भूपेंद्र हुड्ड लगभग पार्टी छोड़ चुके थे और जिस तरह उन्हें दोबारा वापस किया, यह राहुल के लिए एक लेसन है कि पार्टी किस तरह चलायी जाती है।

-मोदी की ताकत पर इन चुनावों का अभी कोई असर नहीं पड़ेगा। अभी उनकी राजनीतिक ताकत प्रीमियल लेवल पर है। हां, अगले 6 महीने में आर्थिक मोर्चे पर अगर स्पष्ट सुधार नहीं हुआ तो लिख कर सेव कर लें कि उनकी राजनीतिक लोकप्रियता इस विफलता को कवर अप नहीं कर पाएगी जो पिछले कुछ सालों से करने में सफल रही है। अंदर से ही आवाजें उठने लगेगी। कहते हैं ना कि नाक और पेट की लड़ाई में नाक जीतता है लेकिन जब पेट के अंदर आंत भी दुखने लगे तो फिर नाक की चिंता समाप्त हो जाती है। तब मंदिर और भारत माता की जय से लोगों का पेट नहीं बढ़ेगा।

(वरिष्ठ पत्रकार नरेन्द्र नाथ के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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