New Delhi, Dec 02: अभी महाराष्ट्र में लगा घाव हरा ही था कि भाजपा सरकार को अब एक और गंभीर चोट लग गई। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछली तिमाही में भारत की विकास-दर जितनी गिरी है, उतनी पिछले छह साल में कभी नहीं गिरी। इस बार देश की सकल उत्पाद दर (जीडीपी) घटकर सिर्फ 4.5 प्रतिशत रह गई है। ऐसा नहीं है कि भारत की विकास दर हमेशा ऊंची ही उठती रही है। आजादी के बाद वह कई बार नीचे गिरी है लेकिन उसके पीछे कई अपरिहार्य कारण रहे हैं।
जैसे भारत-चीन युद्ध, भारत-पाक युद्ध, भयंकर अकाल, विदेशी मुद्रा में भुगतान का असंतुलन आदि। लेकिन इस बार ऐसा कोई कारण नहीं है। इसके अलावा केंद्र की सरकार में किसी प्रकार की कमजोरी या अस्थिरता भी दिखाई नहीं पड़ रही है। नरेंद्र मोदी का नेतृत्व उतने ही दमखम से बरकरार है, जैसा कि 1971 के बाद इंदिरा गांधी का था। तो फिर क्या वजह है कि अर्थ-व्यवस्था में निरंतर गिरावट बढ़ती चली जा रही है ? वित्त मंत्री निर्मला सेतुरमन द्वारा बड़े उद्योगों को दी गई रियायतों और बैंक-व्यवस्था में सुधार के बावजूद हमारी अर्थ-व्यवस्था पटरी से उतरती क्यों जा रही है ?
विश्व बैंक और विश्व मुद्रा कोष के अनुमान भी सही क्यों नहीं बैठ पा रहे हैं ? लाखों मजदूर और किसान बेरोजगार हो गए हैं, दुकानदार दिन भर बैठकर मक्खियां मारते रहते हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियां अपना माल आधे दाम पर बेचने को बेताब हो रही हैं, दीवाली पर बाजारों में रौनक भी दिखाई नहीं पड़ी और सरकार भी झींक रही है कि उसकी आमदनी घट रही है। उसके पास बुनियादी ढांचा खड़ा करने के लिए पैसा नहीं है। आखिर इसका कारण क्या है ? इस अर्थमंदी का कारण सरकार की मंदबुद्धि तो नहीं है ?
अर्थशास्त्री कहते है कि नोटबंदी और जीएसटी लागू करते वक्त सरकार ने जल्दबाजी कर दी। आगा-पीछा नहीं सोचा। माना कि नेता लोग आर्थिक बारीकियों को ठीक से नहीं समझते लेकिन उनमें इतनी समझ तो होनी चाहिए कि इन मामलों में वे किनसे सलाह लें। यदि वे अपने सिर्फ जी-हुजूर नौकरशाहों की नौकरी करते रहेंगे तो उसका नतीजा तो यही होगा। चाहे अर्थ नीति हो या विदेश नीति या समर नीति- जब तक आप खुद विशेषज्ञों से परामर्श नहीं करेंगे, वे आपकी खुशामद के लिए आगे क्यों आएंगे ? यहां मैं यह भी कहना चाहता हूं कि डाॅ. मनमोहनसिंह जैसे कई अन्य अर्थशास्त्री सरकार की आलोचना तो मुक्तकंठ से कर रहे हैं लेकिन वे कोई ठोस समाधान क्यों नहीं सुझाते ? आखिर यह देश उनका भी है, सिर्फ मोदी या भाजपा का ही नहीं है।
(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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