महिला दिवस : एक दिन की बादशाहत

क्यों पुरूष ही आजतक तय करते रहे हैं कि महिलाएं कैसे रहें, कैसे हंसे-बोले, क्या पहने-ओढ़े और किससे बोलें-बतियाएं ?

New Delhi, Mar 07 : हमेशा की तरह ‘महिला दिवस’ की आहट के साथ एक बार फिर स्त्री-शक्ति की स्तुतियों का सिलसिला शुरू हो गया है। हर तरफ भाषण-प्रवचन हैं, यशोगान हैं, कविताई हैं, संकल्प हैं, बड़ी-बड़ी बातें हैं। आप स्त्रियां मानें या न मानें, यह सब आपको बेवकूफ़ बनाने के सदियों पुराने नुस्खे है। आपने अपनी छवि ऐसी बना रखी हैं कि कोई भी आपकी प्रशंसा कर आपको अपने सांचे में ढाल ले जा सकता है।

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झूठी तारीफें कर हजारों सालों तक धर्मों और संस्कृतियों ने इतने योजनाबद्ध तरीके से आपकी मानसिक कंडीशनिंग की हैं कि अपनी बेड़ियां भी आपको आभूषण नज़र आने लगी हैं। womenअगर स्त्रियां पुरूषों की नज़र में इतनी ही ख़ास हैं तो आपने यह सवाल कभी क्यों नहीं पूछा कि किसी भी धर्म और संस्कृति में सर्वशक्तिमान ईश्वर केवल पुरूष ही क्यों है ?

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प्राचीन से लेकर अर्वाचीन तक हमारे तमाम धर्मगुरु, पैगंबर और नीतिकार पुरूष ही क्यों रहे हैं ? क्यों पुरूष ही आजतक तय करते रहे हैं कि स्त्रियां कैसे रहें, कैसे हंसे-बोले, क्या पहने-ओढ़े और किससे बोलें-बतियाएं ? उन्होंने तो यहां तक तय कर रखा है कि मरने के बाद दूसरी दुनिया में आपकी कौन-सी भूमिका होगी। स्वर्ग या जन्नत में जाकर भी अप्सरा या हूरों के रूप में आपको पुरूषों का दिल ही बहलाना है। तमाम नीतियां और मर्यादाएं आपके व्यक्तित्व और स्वतंत्र सोच को नष्ट करने के पुरुष-निर्मित औज़ार हैं जिन्हें अपनी गरिमा मानकर आप स्त्रियों ने स्वीकार कर लिया है। स्वीकार ही नहीं कर लिया हैं, सदियों से अपनी आने वाली पीढ़ियों को इन्हें स्त्रीत्व की उपलब्धि बताकर गर्व से हस्तांतरित भी करती आई हैं।

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आपने कभी सोचा कि प्रेम, ममता, करुणा, सृजनात्मकता में ईश्वरत्व के सबसे निकट होने के बावज़ूद आप दुनिया के ज्यादातर मर्दों की नज़र में उपभोग और मौज़-मज़े की वस्तु, नरक का द्वार, शैतान की बेटी और ताड़ना की अधिकारी ही क्यों हैं ? आपको नहीं लगता कि दुनिया की आधी और श्रेष्ठतर आबादी को अपने इशारों पर चलाने की यह हम शातिर मर्दों की चाल का अब पर्दाफ़ाश होना चाहिए ? मेरी मानें तो आप महिलाओं को झूठे महिमामंडन की नहीं, स्त्री-सुलभ शालीनता के साथ थोड़ी स्वतंत्र सोच, थोड़े स्वतंत्र व्यक्तित्व और बहुत-सी आक्रामकता की ज़रुरत है। आपकी ज़िन्दगी कैसी हो, इसे आपके सिवा किसी और को तय करने का अधिकार नहीं।
अगर पुरुषों द्वारा निर्मित रूढ़ियों की जकड़न से आप निकल सकीं तो साल के तीन सौ पैसठ दिन आपके, वरना एक दिन की बादशाहत मुबारक हो आपको !

(ध्रुव गुप्त के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)