सियासी पार्टियों से बदलाव की मांग करती बदल रही सामाजिक संरचना

जो लोग 2019 में मोदी को राजनीतिक ठिकाने लगाने के सपने देख रहे हैं,उन्हें अपने सपनों के इंजिन में नयी सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता की ऊर्जा का इस्तेमाल करना होगा।

New Delhi, May 25 : जो लोग भारत को हिन्दू और मुसलमानों वाले देश की तरह सोचते हैं, वह हिन्दुस्तान को इतिहास के नज़रिये से शायद देख पाने में समर्थ नहीं हैं या फिर इतिहास बोध को ही अबोध बनाने पर तुले हुए हैं। जो लोग इसे पिछड़े-अगड़ों, मुसलमानों और दलितों जैसे एकमुश्त वोट बैंक की तरह सोचते हैं, वह हाल में हुए या हो रहे भविष्य के ख़्याल से बड़े-बड़े, लेकिन सूक्ष्म बदलावों को पढ़ पाने में असमर्थ हैं।

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इसकी बड़ी वजह है इन ‘एकमुश्त वोट बैंक’ वाले जाति,धर्म या वर्णसमूहों के भीतर का बहुस्तरीय होना; भावनाओं से रचे गये अंधकार वाले उन बहुस्तरीय द्वीपों में रहने वालों के बीच अपने अधिकारों और सत्ता की दावेदारी को लेकर चेतना की झिलमिलाती रौशनी का खिलते जाना।दूसरा वर्ग शायद यह समझने या मानने के लिए तैयार नहीं है कि इन वर्गगत समूहों की आकांक्षायें अब अपने-अपने समुच्चय से जुड़ते हुए भी अलग-अलग उपसमुच्चय बनाती हैं। पारंपरिक राजनीतिक नज़रिये में अटके हुए राजनीतिक दल इन उपसमुच्चय को पारिभाषित कर पाने में असक्षम दिखते हैं,क्योंकि जैसा कि वे सोच रहे हैं कि पहले ही वाले समुच्चय में अंटे-फंसे लोगों की आकांक्षाओं को सम्बोधित करके वो गठबंधन की सरकार भी बना लेंगे और उसे पूरे पांच साल चला भी लेंगे,तो शायद उदारवादी अर्थव्यवस्था और संरक्षणवादी राजनीतिक व्यवस्था के नतीजे से सामने आयी सामाजिक गतिशीलता को समझा नहीं जा रहा है।जाति,वर्ण और धर्म के ठहरे हुए स्वरूपों में ही वह अपने आगे की राजनीतिक का रूप-रंग तय करने की कोशिश कर रहे हैं।

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अगर समाजवादी, बहुजन समाजवादी,राष्ट्रीय जनता दल, वामपंथी पार्टियां,और कांग्रेस इस बहुस्तरीय समाज की नयी आकांक्षाओं को पुरानी शैली में वर्णगत,जातिगत और धर्मगत आधार पर पहले ही वाली राजनीति से हांकने को दोहराती हैं,तो मुंह की खाना तय है,विभिन्न स्तरों पर आयी चेतना ने आर्थिक आधार पर टकराते हितों के बीच समाज में अपनी स्पष्ट पहचान पहचान बना ली है। इसे देखने के लिए नये राजनीतिक नज़रिये की आवश्यकता है। इस पहचान को स्वीकार किये बिना कोई भी राजनीतिक दल अपना अस्तित्व नहीं बनाये रख सकता। इस मायने में वामपंथ,राजनीति,समाज और धर्म को भी एक नयी दिशा दिखा सकता था,लेकिन इस विचारधारा को मानने वाले ख़ुद व्यावहारिक राजनीति में या तो उपर्युक्त दलों के पिछलग्गू दिखायी पड़ते हैं या फिर ऐतिहासिक समझ को धकियाते हुए बाक़ी दलों की तरफ़ से मिल रहे धक्के से कच्छप चाल में गतिशील है।
जिस तरह से तीस-चालीस साल पहले भारतीय वामपंथ ने बड़ी मुश्किल से हिन्दू समाज(अब भी मुस्लिम समाज के प्रति पूरी तरह उदासीन) की विडम्बनाओं को बड़ी हिचकिचाहट के साथ स्वीकार किया था,उसी तरह आज उन विडम्बनाओं में आये परिवर्तन को समझ पाने से उसे गुरेज है।

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वहां नेतृत्व आज भी पिछले तीन दशक वाली पुरानी जातिगत समुच्चय की चेतना के ब्रैकेट में उलझी हुई है,जबकि उस समुच्चय के भीतर कई उपसमुच्चय की उपजाति वाली चेतना नयी करवट ले चुकी है। इसी नयी स्थिति को सम्बोधित नहीं कर पाने की हालत का बीजेपी लाभ उठा रही है।बीजेपी के साथ आरएसएस जैसी व्यापक सामाजिक-धार्मिक आधार वाला संगठन है।लिहाज़ा मुक़ाबला इतना आसान नहीं होगा।
जो लोग 2019 में मोदी को राजनीतिक ठिकाने लगाने के सपने देख रहे हैं,उन्हें अपने सपनों के इंजिन में नयी सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता की ऊर्जा का इस्तेमाल करना होगा,सपने तभी हक़ीक़त बन पायेंगे,वर्ना जिस एक पार्टी के ख़िलाफ़ वामपंथी पार्टियों के साथ बाक़ी पार्टियां एकजुटता दिखा रही हैं, वह समुच्चय के भीतर के उपसमुच्चय से भी अपनी संगत बैठाने की कला में माहिर है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)