जयराम रमेश का सवाल और कांग्रेस की चुप्पी !

जयराम रमेश ने यह भी कह दिया कि सल्तनत तो चली गई लेकिन कांग्रेसियों का सुल्तानी रवैया नहीं गया।

New Delhi, Aug 13 : कड़वे सच की निशानी यही है कि उसे बोलने वाले को बहुत कुछ सुनना पड़ता है। ऐसा सच जितना गहरा होता है उतना ही तकलीफदेह भी। इसीलिए उस संदेश को पढऩे और उस तकलीफ को झेलने की बजाय अक्सर लोग डाकिए को गोली मारना पसंद करते हैं।
ऐसा ही कुछ जयराम रमेश के साथ हुआ है। एक इंटरव्यू में उन्होंने यह मान लिया कि आज कांग्रेस पार्टी के सामने उसके अस्तित्व का संकट है। यह संकट सिर्फ चुनावी हार का नहीं है जैसा कि 1977 या फिर 1989 या फिर 1998 में कांग्रेस ने झेला था। आज कांग्रेस का संकट उससे कहीं गहरा है। जयराम रमेश ने यह भी कह दिया कि सल्तनत तो चली गई लेकिन कांग्रेसियों का सुल्तानी रवैया नहीं गया। अब भला इस बात को कौन नहीं जानता। हर पत्रकार, हर नेता और हर कांग्रेसी कार्यकत्र्ता आपको यही कहता मिल जाएगा। जयराम रमेश का कसूर यह है कि जो बात बंद कमरे में कहनी चाहिए वह उसने खुल कर कह दी। बात सच थी इसीलिए चुभ गई। बस कांग्रेस के तमाम छोटे-बड़े नेता अब जयराम रमेश पर पिल पड़े हैं। कोई कहता है कि वह तो खुद सुल्तान हैं।

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कोई कहता है कि उन्हें पिछले दरवाजे से एंट्री मिल गई थी इसीलिए ऐसी बात करते हैं। कोई उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग कर रहा है। अभी तक किसी ने यह नहीं कहा कि उन्होंने झूठ बोला। यहां असली सवाल जयराम रमेश का नहीं है, उनके बयान पर उठा तूफान चुपचाप से कांग्रेसी अंदाज में दफना दिया जाएगा यानी असली मुद्दे पर चर्चा कभी नहीं होगी। कांग्रेस भले ही इस सवाल का सामना न करे लेकिन शेष देश अब इस सवाल को टाल नहीं सकता। देश के भविष्य में कांग्रेस की क्या भूमिका होगी। आज नहीं तो कल क्या कांग्रेस देश के लिए एक सार्थक विकल्प बन सकती है? क्या बुनियाद पर हो रहे हमले का प्रतिकार करने में कांग्रेस एक अहम भूमिका निभा सकती है? यह सवाल कांग्रेस और कांग्रेसियों का नहीं है। यह देश के भविष्य का सवाल है।

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इस सवाल का उत्तर देने से पहले एक गलतफहमी से मुक्त होना होगा। कई लोग ऐसा सोचते हैं कि कांग्रेस की समस्या सिर्फ उसके नेतृत्व की समस्या है। दबी जुबान में राहुल गांधी के बारे में जहर उगलने वाले कांग्रेसियों की कोई कमी नहीं है। अगर सोशल मीडिया को देखें तो ऐसा लगेगा कि राहुल गांधी ही कांग्रेस की सारी समस्याओं की जड़ हैं। मुझे हमेशा यह सोच बहुत अधूरी लगती रही है। राहुल गांधी न तो वैसे भोंदू हैं, न ही उतने बदनियत जैसा कि मीडिया उन्हें पेश करता है। इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी में वह संकल्प और राजनीतिक समझदारी नहीं है जिसकी जरूरत आज कांग्रेस पार्टी को है।
संकट यह नहीं है कि कांग्रेस जैसी पार्टी पर राहुल गांधी जैसा नेता काबिज है। संकट यह है कि आज की कांग्रेस पर राहुल गांधी जैसा नेता ही काबिज हो सकता है। जनाधार वाले नेता अब इस पार्टी के शीर्ष के नजदीक पहुंच ही नहीं सकते। वैचारिक आग्रह वाला व्यक्ति इस कांग्रेसी गाड़ी का ड्राइवर नहीं बन सकता। राहुल गांधी कांग्रेस के संकट का कारण नहीं, प्रतिबिम्ब भर हैं। पहला सच यह है कि आज कांग्रेस का संकट ऊपर से नीचे तक है। शीर्ष नेता से लेकर सड़क के कार्यकत्र्ता तक कहीं कोई संकल्प नहीं दिखता। आज भाजपा में और कुछ हो न हो, सत्ता की भूख जरूर है। कांग्रेसियों में बैठे-बिठाए सत्ता की लालसा जरूर है लेकिन सत्ता पाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करने की इच्छा भी नहीं है। कांग्रेस का संकट अंतत: दृष्टि के अभाव का संकट है।

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आज कांग्रेस खुद नहीं जानती कि मुद्दे पर पार्टी कहां खड़ी है। मोदी सरकार की गैर-लोकतांत्रिक हरकतों का विरोध करना तो आसान काम है। लेकिन क्या एमरजैंसी के गुणगान करने वाली और गांधी परिवार से बंधी कांग्रेस सचमुच लोकतंत्र की हिमायत कर सकती है? नोटबंदी या जी.एस.टी. पर भाजपा सरकार की नीतियों का विरोध करना एक बात है। लेकिन क्या कांग्रेस के पास इन नीतियों का कोई विकल्प है? क्या कांग्रेस उस आर्थिक सोच से बाहर आने को तैयार है, जो मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी दोनों की आॢथक नीतियों का आधार रही है? आज भाजपा और कांग्रेस में बस एक अंतर दिखाई देता है। भाजपा खुलकर मुसलमान विरोधी है और सभी अल्पसंख्यकों के विरुद्ध द्वेष भड़काने में लगी है। कांग्रेस के कार्यकत्र्ता की मानसिकता भाजपा से बहुत अलग नहीं है लेकिन कांग्रेस के नेता अल्पसंख्यकों की तरफदारी करते हैं और इस नाते सैकुलर कहलाना चाहते हैं।

कांग्रेस के इस सैकुलर चोगे के पीछे लोगों को वैचारिक आग्रह कम और वोट की मजबूरी ज़्यादा दिखाई देती है। कांग्रेस न तो हिंदू जनमानस में सैकुलर भारत के लिए समर्थन जुटा पा रही है और न ही अल्पसंख्यकों में सुरक्षा का भाव जगा पा रही है। सैकुलर भारत के सपने को बचाने की बजाय कांग्रेस इस विचार को बदनाम करने का औजार बन गई है। जहां दृष्टि नहीं है वहां दिशा बोध कैसे होगा? चाहे बिहार के गठबंधन का मामला हो या 2019 का चुनाव, कांग्रेस के पास रणनीति नाम की वस्तु है ही नहीं। गुजरात में अपने ही विधायकों से अपने ही दरबारी नेता के पक्ष में वोट डलवा लेना ही इस पार्टी के लिए उपलब्धि बन गया है। आज की कांग्रेस पार्टी भाजपा के सत्ता में बने रहने की सबसे बड़ी गारंटी है। न तो कांग्रेस खुद भाजपा का विकल्प बन सकती है और न ही वह कोई विकल्प बनने देगी। आज देश में जगह-जगह किसानों, युवाओं, दलित, आदिवासी समाज और विद्यार्थियों के आंदोलन खड़े हो रहे हैं।

कांग्रेस न तो इन आंदोलनों को राजनीतिक दिशा देगी और न ही इनसे एक नई राजनीति खड़ी होने देगी। सच यह है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह भले ही कांग्रेस मुक्त भारत की कितनी ही बात कर लें, वे नहीं चाहेंगे कि देश सचमुच कांग्रेस से मुक्त हो। वे चाहेंगे कि एक प्राणहीन व दिशाहीन कांग्रेस बची रहे, पड़ी रहे ताकि भाजपा का कोई सच्चा विकल्प खड़ा न हो पाए। इस कांग्रेस को वही सुझाव दिया जा सकता है जो महात्मा गांधी ने आजादी से पहले कहा था-देशहित में कांग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिए। अपने वर्तमान स्वरूप में इस पार्टी का भंग होना ही देश के लिए श्रेयस्कर है।

(स्वराज अभियान के संयोजक योगेन्द्र यादव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)