एक वो बाबा जी थे और एक ये कलंकी बाबा है !
उनके वहां तब हजारों की तादात में प्रशंसक थे. न जाने कितने परिवार होंगे जो आज भी बाबा जी के आदेश पर प्रतिदिन कंजिका ( बालिका ) जिमाते होंगे।
New Delhi, Aug 27 : बाबा राम रहीम के तालिबानी अंध भक्तों का मानवीयता को शर्मसार कर देने वाली नापाक आतंकी हरकत से विशेष तौर पर इसलिए मर्माहत हूं कि जिस सिरसा में डेरा सच्चा सौदा का मुख्यालय है, उससे मेरे परिवार का जुड़ाव भी है. हमारे पूर्वज बीकानेर ( कुचोर ) से चल कर सिरसा की तहसील बन चुके एलनाबाद मे आकर बसे थे. वहीं से हमारे प्रपितामह लगभग पौने दो सो साल पहले काशी आए थे विद्याध्ययन के लिए और फिर विश्वनाथ नगरी के ही होकर रह गए. गाहे बेगाहे मै परिवार की चर्चा अपने ब्लाग्स और पोस्ट में करता रहा हूं. मगर कभी पिताश्री के बारे में ज्यादा बात नहीं की. मेरी आत्मकथा में उनका दर्जा भगवान सा है. उनके कृतित्व पर एक पोथा तैयार हो सकता है. उसकी तैयारी मे लगा हूं. पता नहीं परमात्मा साथ देंगे या नहीं पर कोशिश जरूर लिखने की करूंगा. इस समय मैं भैया जी ( पिताश्री काशीराम शास्त्री याज्ञिक ) के व्यक्तित्व पर हल्की सी रौशनी डालने की चेष्टा करूंगा.
पिता और पितामह गौरी शंकर शास्त्री जाने माने ज्योतिषी थे. सरस्वती फाटक वाराणसी में आज भी संगमरमर की पट्टिका पर लिखा है “भृगु सम्राट, ज्योतिष सम्राट”. गुरू के आदेश पर ज्योतिष छोड़ महाभारत का प्रवचन और साथ में महा लक्ष्मी यज्ञ का आयोजन, जो समय की मांग था भी देश के तत्कालीन घोर दारिद्र को देखते हुए. क्यों गुरू ने ऐसा आदेश दिया वह अपने आप में एक लंबी कहानी है. परंतु यहां इतना उल्लेख जरूरी है कि वह देश के तमाम राज्यों के शहरों और कस्बों में प्रवचन करते. यज्ञ साथ होता और जो भी चढ़ावा आता वह उसी स्थान की अत्यंत गरीब घर की बारह वर्ष से कम उम्र की कन्या को दे दिया जाता. कन्या चयन वहीं की कमेटी करती. पैसे बैंक में फिक्स डिपाजिट करा दिए जाते जो विवाह के समय उसके परिवार को मिलते. यज्ञ से उनका इतना ही लेना देना था कि सुबह वह यज्ञशाला में कर्मकांडियों के पैर का अंगूठा धोकर चरणामृत लेते. शाम को उनकी जूठी पत्तल उठाते. अंतिम यज्ञ उनका 1980 में हुआ था. योगक्षेम के लिए यज्ञ के साथ ही अपनी कथा की भी पूर्णाहुति करते और जो भी पत्र- पुष्प मिलता उसी से परिवार का भरण पोषण होता था. देश के तमाम हिस्सों में उनके 170 यज्ञ हुए. राजस्थान के साथ ही पंजाब और सिरसा सहित हरियाणा के विभिन्न नगरों में भी उन्होंने सनातम धर्म की अलख जगायी. जो उनकी सबसे बड़ी खासियत थी, वह यह कि जीवन में कभी किसी को चेला चेली नहीं बनाया, न किसी को पैर छूने दिया और न ही किसी के घर गए. जबकि परिवार देश के महेश्वरियों का कुल गुरू हुआ करता था. पौ फटने के पहले ही उठना. सात बजे तक पूजा – ध्यान समाप्ति के बाद दो घंटे ज्योतिष सिर्फ दो फूल या दो पान के शुल्क पर. साढ़े नौ बजे भोजन. एक घंटा अखबार और पत्र पत्रिका पढ़ने के बाद दो घंटा शयन. अपराह्न दो बजे स्नान. आंखों पर पट्टी बांध कर ध्यान. शाम सात बजे तक मौन. यदि कथा हुई तो प्रवचन में ही मौन टूटता. घर में होने से सायंकालीन अखबार पाठन और रेडियो पर समाचार श्रवण.
हम भाई छुट्टियों में उनके पास जाते. कथा के समय मां हारमोनियम पर होती थीं. उनकी अस्वस्थता में मैं या अनुज राधे पिता के साथ आसन पर उस दायित्व का निर्वहन करते. तब हम देखते कि जयपुर के गोविंद देव जी के मंदिर में पूर्व जयपुर नरेश मानसिंह और महारानी गायत्री देवी कैसे फर्श पर बैठ कर उनकी संगीतमय कथा का श्रवण करने में नहीं सकुचाते. देश की न जाने कितनी हस्तियों को हमने पिता के पास देखा लेकिन सभी उनकी नजरों में समान थे चाहे कोई राजा हो या हो रंक. ज्योतिष में भी मैने कितने ही वीआईपी कद के लोगों को बैरंग लौटते पाया. क्योंकि दो घंटे से एक मिनट भी ज्यादा नहीं.
लोग पिता जी को राम रहीम के प्रभाव वाले इलाकों में बाबा जी के नाम से पुकारते थे. ऐसे थे हमारे पिताश्री जो नौ संतानों में ज्येष्ठ थे. परिवार में हम सभी उनको भैया जी और मां को भाभी संबोधित करते. पूजा घर में आज दोनो विराजमान हैं.
सत्तर के दशक में पिताजी के सिरसा में कई यज्ञ हुए थे. तब उनका ठिकाना जनता भवन हुआ करता था. उनके वहां तब हजारों की तादात में प्रशंसक थे. न जाने कितने परिवार होंगे जो आज भी बाबा जी के आदेश पर प्रतिदिन कंजिका ( बालिका ) जिमाते होंगे. असल में जब यज्ञ का समापन होता तब वह यज्ञ के दौरान अपनी पहनी बांह वाली गंजी और लुंगी नुमा धोती नीलाम करते कंजिका जिमाने की संख्या पर. कहते कि भाई जो शिशु पैदा हो उसका पोतड़ा बना लेना. खुद एक हजार की बोली लगाते जो संख्या बढ़ कर कई बार दस लाख कंजिका भोजन तक पहुंच जाती.
उन्ही बाबा जी का पुत्र है यह नाचीज. सोचता हूं कि वह युग कितना अलग था. कथा और प्रवचन के नाम पर दुकानदारी नहीं हुआ करती थी. सही मायने में संत क्या होता है, यह मैने भैया जी में संपूर्णता के साथ पाया. वह तो तीन जुलाई 1983 को अपने आराध्य राजराजेश्वर भगवान श्री कृष्ण के चरणों में समा गए. मां को गुजरे सात बरस हुए है. मां के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम थे तो भैया जी सिर्फ राजराजेश्वर के चरणों की फोटो को ही हमेशा अपने पास रखते थे. कभी श्याम का मुख नहीं देखा उन्होंने. एक वो बाबा जी थे और एक यह कलंकी बाबा राम रहीम है. दोनो का जुडाव एक ही माटी से है मगर अंतर देखिए तो जमीन आसमान जैसा. राम पाल हो या राम रहीम जैसों के कुकर्मो को देखने के लिए अच्छा ही हुआ कि आज भैया जी जीवित नहीं हैं. मुझे और मेरे परिवार को आप पर गर्व है भैया जी. हालांकि मैं उनके पदचिन्हों के समग्र अनुसरण का दावा तो नहीं करता मगर यह तो कह ही सकता हूं कि अपने पत्रकारिता जीवन में उनको ही आदर्श मान कर चला. हां, इसमें मैं कितना सफल रहा, यह दूसरे तय करेंगे , मैं नहीं.