निजता की नीलामी बची !

कोर्ट के इस फैसले ने आम आदमी को उसकी निजता के नीलाम होने के डर से राहत दी है। इस मामले में कोर्ट ने सरकार की दलीलों को खारिज कर दिया।

New Delhi, Aug 28 : निजता का अधिकार अब मौलिक अधिकार बन चुका है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने केंद्र सरकार को बैकफुट पर खड़ा कर दिया है, जो निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के तौर पर मान्यता देने का विरोध कर रही थी। फैसले से देश के 134 करोड़ लोग खुश हैं; क्योंकि हम जिस देश, तंत्र और समाज में सार्वजनिक जीवन जीते हैं, वहां मानवीय सरोकारों के लिए अपनी निजता सुरक्षित रखने (एक तरह से व्यक्तिगत आजादी) के लिए काफी कुछ दांव पर लगा देते हैं। और जब यही निजता सार्वजनिक होने का डर होता है तो व्यक्ति के सामाजिक सम्मान पर खतरा मंडराने लगता है और उसकी स्वतंत्रता का अतिक्रमण होता है। दरअसल, कोर्ट के इस फैसले ने आम आदमी को उसकी निजता के नीलाम होने के डर से राहत दी है। इस मामले में कोर्ट ने सरकार की दलीलों को खारिज कर दिया। सरकार ने पहले कोर्ट में कहा था कि निजता का अधिकार तो है, लेकिन वह संपूर्ण अधिकार नहीं है। सरकार ने कहा था कि निजता अनिश्चित और अविकसित अधिकार है।

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नौं सदस्यीय जजों की संविधान-पीठ में इस बात पर सर्वसम्मति रही कि जीवन और व्यक्तिगत आजादी मानव के अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। यह अधिकार प्रकृति के कानून का हिस्सा है। इस अधिकार की प्रतिष्ठा आजादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ जुड़ी हुई है।दरअसल, बहस ने तूल समय पकड़ा जब सरकार ने कहा कि निजता का अधिकार सामान्य अधिकार है, मौलिक अधिकार नहीं। सरकार को यह दलील तब देनी पड़ी जब उसने जनहित की योजनाओं के लिए आधार को अनिवार्य करना शुरू किया। सरकार के इस प्रयास को नागरिक अधिकारों से जुड़े कार्यकर्ताओं, संस्थाओं और कानून के जानकारों ने चुनौती दी। कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व जज एस पुट्टूस्वामी ने आधार कार्ड की अनिवार्यता का अदालत में विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि बायोमीट्रिक डाटा और सूचनाएं इकट्ठा करने से निजता का हनन होता है और गोपनीयता भंग होती है। आखिरकार कोर्ट ने उनकी दलील को स्वीकार कर लिया। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि निजता का अधिकार वास्तव में मौलिक अधिकारों के तहत जीने के अधिकार का हिस्सा है और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी को भी जीने की आजादी के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। जाहिर है, कोर्ट ने निजता के अधिकार को गहराई से जांचा है, उसकी नैसर्गिकता, वैधानिकता और इंसान की आजादी में भूमिका के नजरिए से परख की है। दरअसल, इस मामले में पहले तीन सदस्यीय बेंच ने सुनवाई की। इस बेंच ने ही निजता के मामले को बड़ी बेंच में रखने की सिफारिश की थी, जिसके बाद मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने मामले की सुनवाई के लिए पांच सदस्यीय बेंच का गठन कर दिया। 1954 में एमपी शर्मा और 1962 में खड़क सिंह मामले की सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मौलिक अधिकार नहीं माना था। चूंकि इन मामलों की सुनवाई छह और आठ जजों वाली बेंच ने की थी, इसलिए मौजूदा केस की सुनवाई के लिए नौ सदस्यों वाली संविधान पीठ का सुझाव दिया गया था। जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली इस संविधान पीठ ने सरकार और याचिकाकर्ताओं की दलीलों की सुनवाई के बाद 24 अगस्त को पुराने दो बड़े फैसलों को पलटते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया।अब कोर्ट के इस फैसले का कई मामलों पर सीधा असर पड़ेगा। इनमें समलैंगिकता को कानूनी मान्यता का मामला भी शामिल है, जो अभी अदालत में लंबित है। यौन रुझान को भी निजता का हिस्सा माना गया है। इस मामले पर भी सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमे की सुनवाई जारी है। अगर निजता पर आए इस फैसले को ध्यान में रखें, तो समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करके धारा 377 को खत्म किया जा सकता है। कोर्ट यह मान चुका है कि एलजीबीटी यानी लेस्बियन-गे-बाइसेक्सुअल-ट्रांसजेंडर होना भी निजता है और उसमें दखलअंदाजी नहीं की जा सकती। कोर्ट ने कहा कि निजी घनिष्ठता और यौन रुझान निजता है। उसका सामाजिक विविधता वाला स्वभाव, जीवन शैली, परिवार और संस्कृति निजता का हिस्सा है। कोर्ट ने कहा कि यह निजता सार्वजनिक स्थान पर भी खत्म नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से डीएनए आधारित टेक्नोलॉजी बिल 2017 पर सरकार को नए सिरे से गौर करना होगा। इस बिल के तहत सरकार राष्ट्रीय और राज्यों में डीएनए बैंक बनाना चाहती है, जिसमें कई तरह की निजी सूचनाएं रखी जा सकती हैं। अब तक मिली जानकारियों के अनुसार इस बिल के ड्राफ्ट पर काम जारी है। संविधान पीठ के इस फैसले के बाद बीफ को लेकर चल रही बहस में भी अब नया मोड़ आ सकता है। कोर्ट ने माना है कि खाने-पहनने जैसे फैसले व्यक्ति के अपने विवेक और इच्छा पर निर्भर करते हैं, जिसमें दखलअंदाजी उसकी स्वतंत्रता में बाधा डालने जैसा है।

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फैसले के बाद अब सरकार फोटो, वोटर आईकार्ड, पैन कार्ड आदि जगहों पर निजी जानकारी तो मांग सकती है लेकिन यह किसी और को हस्तांतरित नहीं की जा सकेगी। आधार कार्ड के जरिए बैंक खाते और पैन तक जुड़ चुके हैं। क्या इसमें बदलाव होगा? कतई नहीं, इस स्थिति में कोई फर्क नहीं आएगा। वजह यह है कि इसका वैधानिक मकसद और जरूरत स्पष्ट है। वहीं,19 मंत्रालयों की 92 योजनाओं में आधार कार्ड का इस्तेमाल हो रहा है। इस पर फर्क पड़ेगा क्योंकि अब संबंधित व्यक्ति से सरकार को पूछना होगा कि उनकी गोपनीय जानकारी का इस्तेमाल सरकार खास मकसद से करे या नहीं। इतना ही नहीं, सरकार को यह भरोसा भी दिलाना होगा कि वह आम लोगों की निजी जानकारी को गोपनीय कैसे रखेगी। उसका पूरा खाका, पूरी योजना सामने रखनी होगी। सरकार को यह भी बताना होगा कि निजता का डेटा किसी और को हस्तांतरित होने से वह कैसे रोकेगी। कहने का मतलब यह है कि निजी जानकारी की गोपनीयता की रक्षा-सुरक्षा का पूरा भरोसा सरकार को देना होगा। पहले सुरक्षा की गारंटी देनी होगी, तभी वह निजी जानकारी से जुड़े डेटा का इस्तेमाल कर पाएगी।सरकार की ओर से केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद भी भरोसा दिलाते दिख रहे हैं कि निजी जानकारी की सुरक्षा तय करने का जिम्मा केंद्र सरकार का है, इसलिए ऐसा करते हुए सरकार यह देखेगी कि अदालत का भी मान बना रहे और देश के विकास की गति भी इससे सकारात्मक रूप से प्रभावित रहे। आधार योजना पर अदालत में छिड़ी बहस के दौरान निजता के अधिकार पर बहस शुरू हुई थी। तय हुआ कि सबसे पहले यही सुनिश्चित किया जाए कि निजता का अधिकार मौलिक है या नहीं। उसके बाद ही आधार कार्ड के मामले या ह्वाट्स एप के मामले की सुनवाई हो। इस तरह इन मामलों पर विचार करने का रास्ता खुल गया है। निस्संदेह इन फैसलों पर भी निजता के मौलिक अधिकार बन जाने का असर दिखेगा।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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