जन्मदिन विशेष : भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रकाशक को पत्र !

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने यह पत्र अपने प्रकाशक बाबू रामदीन सिंह को लिखी थी। भारतेंदु ने इस तरह के कई पत्र समय-समय पर राम दीन सिंह को लिखे थे।

New Delhi, Sep 10 : ‘मेरे एक मित्र ने मुझसे बड़ा विश्वासघात किया। मेरा कुछ रुपया कुछ कारण से उसके नाम से रहता था। वह बेइमान होकर मिर्जा पुर चला गया। बल्कि मैं इसी कारण विन्ध्याचल गया था। अब वह साफ इनकार कर गया। खैर दीवानी फौजदारी जो कुछ होगी, वह देख ली जाएगी। अब गुप्त बात आपकों लिखता हूं कि रुपए सब एक साथ हाथ से निकल जाने से मैं बहुत ही तंग हो गया हूं। महाराज से मांगा तो कहा कि दूसरे महीने में देंगे। यदि हो सके तो शीघ्र सहायता कीजिए। चार सौ रुपए की जरूरत है।’

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भारतेंदु हश्चिंद्र ने यह पत्र अपने प्रकाशक बाबू रामदीन सिंह को लिखी थी। भारतेंदु ने इस तरह के कई पत्र समय-समय पर राम दीन सिंह को लिखे थे। यह सन 1882 की बात है। लिखें भी क्यों नहीं ! पैसे मांगने का उनका अधिकार था। बाबू रामदीन सिंह भारतेंदु की सारी पुस्तकों के प्रकाशक जो थे। पटना के खड्ग विलास प्रेस को भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएं छापने का एकाधिकार प्राप्त था। उस प्रेस के मालिक बाबू रामदीन सिंह थे। उन दिनों देश में तीन ही प्रेस थे जो उनकी रचनाएं छाप सकते थे।
अन्य दो प्रेसों ने छापने से इनकार कर दिया था। परिणामस्वरूप यह सौभाग्य बिहार के एक प्रेस को मिला। खड्ग विलास प्रेस उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के अंतिम दो दशकों में आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रकाशन की अकेली प्रकाशन संस्था रहा है। 19 वीं सदी के आठवें दशक से बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक बिहार के विद्यालयों के हिंदी पाठ्य पुस्तकों के मामलों में खड्ग विलास प्रेस का एकाधिपत्य हो गया था।

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ऐसे प्रेस जिसने भारतेंदु की रचनाओं को जन-जन तक पहुंचाया और जिसने हिंदी पाठय पुस्तकों के मामले में ऐतिहासिक काम किया, वह अब इतिहास की किताबों में है। उसके साथ भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ प्रेस के संबंध की कहानियां भी। जबकि उसका एक सजीव स्मारक पटना में होना चाहिए था।
दोनों एक दूसरे पर किस तरह निर्भर थे, इसका एक उदाहरण यह पत्र भी है। 23 सितंबर 1882 को भारतेंदु ने राम दीन सिंह को लिखा कि आपका पत्र और तार मिला। आपने जैसा अनुग्रह इस समय किया, वह कहने के योग्य नहीं चित्त ही साक्षी है। अत्यंत कष्ट के कारण लिखता हूं कि हो सके तो एक सौ और भेज दीजिए। उत्तर प्रदेश के बलिया के मूल निवासी महाराज कुमार रामदीन सिंह 1880 में पटना के बांकी पुर खड्ग विलास प्रेस की स्थापना की थी। जमींदार परिवार के रामदीन सिंह के के पुत्र सारंगधर सिंह आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।

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वह संविधान सभा के सदस्य थे। खड्ग विलास प्रेस के कारण भी उस परिवार की प्रतिष्ठा थी। सारंगधर बाबू पटना से दो बार सांसद भी चुने गये थे। उससे पहले रामदीन सिंह ने अपना जीवन शिक्षक के रूप में शुरू किया। पाठ्य पुस्तकों के अभाव ने उन्हें प्रकाशन के व्यवसाय के लिए प्रेरित किया था। उन्होंने स्वयं पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं और अन्य लोगों से भी लिखवाया। खड्ग विलास प्रेस पर शोध करने वाले डा.धीरेंद्र नाथ सिंह ने अपनी शोध पुस्तक में लिखा है कि यदि महाराज कुमार रामदीन सिंह का सद्भाव और सहयोग न मिला होता तो भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीन साहित्यकारों को अपनी रचनाओं के व्यवस्थित प्रकाशन का इतना अच्छा सुयोग न मिला होता।
पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि बाद के मालिकान ने खड्ग विलास प्रेस की साढ़े आठ कट्ठा जमीन बेच दी और प्रेस की मशीन भी कलकत्ता के एक मशहूर अखबार ने खरीद ली। इस तरह के ऐतिहासिक महत्व वाला प्रेस और प्रकाशन किसी अन्य देश में होता तो उसे राष्ट्रीय स्मारक के रूप में विकसित किया जाता।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)