जब कम्युनिस्ट और संघी गले मिले !
जब देश आजाद हुआ तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अलग तेलांगना राज्य का आंदोलन चला रही थी और अगर उसे इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
New Delhi, Sep 10 : कानपुर में एक जुझारू कम्युनिस्ट वर्कर थे कामरेड सुदर्शन चक्र। वे नगर महापालिका में चौथे दरजे के कर्मचारी थे और उन्होंने वहां पर उन कर्मचारियों की यूनियन भी बना रखी थी। वे शहर की सूती मिलों की मजदूर यूनियनों में भी सक्रिय थे। उनकी ख्याति बहुत थी और कामरेड श्रीपाद अमृत डांगे से लेकर महापंडित राहुल सांकृत्यायन तक उनके यहां आया करते थे। वे हमारे पिता को छोटा भाई मानते थे और उन्हें कम्युनिस्ट आंदोलन से जोड़ा था। मगर कामरेड सुदर्शन चक्र तत्कालीन जनसंघ अथवा आरएसएस के प्रति कोई दुराव नहीं रखते थे और उनका कहना था कि समाज के प्रति उनका भी सोच है। हर राजनीतिक दल और संगठन अपनी-अपनी सोच के मुताबिक न्यायसंगत समाज के लिए लड़ता है। वे एक किस्सा सुनाया करते थे। आज जब माकपा के नेता आरएसएस और भाजपा की जीत और स्वयं की हार से इतना बौखला गए हैं कि वे कुछ भी कहने को और करने को तैयार हैं तो कानपुर के मशहूर कामरेड सुदर्शन चक्र का वह किस्सा याद आ जाता है।
जब देश आजाद हुआ तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अलग तेलांगना राज्य का आंदोलन चला रही थी और अगर उसे इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन कहा जाए तो गलत नहीं होगा। देश भर में भाकपा के वर्कर जेल में डाल दिए गए थे। कामरेड सुदर्शन चक्र को भी उन्नाव जेल में रखा गया था। तीस जनवरी 1948 को जब गांधी जी की हत्या हुई तो पूरे देश में संघ के कार्यकर्ता भी पकड़े जाने लगे। उन्नाव जेल चूंकि बड़ी थी इसलिए वहां पर भी संघ के ये कार्यकर्ता रखे गए। गांधी मर्डर केस में मुख्य आरोपी नाथूराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे को भी उन्नाव जेल में ही रखा गया था। एक तरफ कम्युनिस्ट तो दूसरी तरफ संघी। दोनों में परस्पर बातचीत नहीं होती थी। एक दिन खाने की क्वालिटी को लेकर कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने विरोध किया और जेल का बासी व सड़ा खाना खाने से मना कर दिया। कम्युनिस्टों का यह विरोध इतना बढ़ गया कि जेल गार्डों से उनकी भिड़ंत हो गई। जेल के वार्डनों ने उनकी पिटाई की तो उन्होंने भी मोर्चा लिया और अपने-अपने लोटों जो जेल में पानी के लिए मिलते थे में रसोई से मिर्च लाकर उनका झोल तैयार किया तथा पूरा लोटा उस मिर्च के झोल से भर लिया। तथा अपने-अपने अंगौछों से उन्हें बांध लिया। अगले रोज खाने के वक्त जेलर, जो कि एक मुसलमान अफसर था, स्वयं आया और इनको वैसा ही सड़ा-गला खाना परोसवा दिया। इन्होंने विरोध किया तो गार्डों को बुलवा कर लाठियां चलवाने का आदेश दे दिया। इधर ये कम्युनिस्ट वर्कर भी तैयार थे और जैसे ही गार्ड लाठियां लेकर आगे बढ़े कम्युनिस्ट वर्करों ने अपने लोटों से उन पर प्रहार किया। अंगौछे में बंधे लोटे घातक हथियार साबित हुए और सारे गार्ड चुटहिल हो गए।
अब जेलर की बड़ी थू-थू हुई। मामला प्रशासन तक पहुंचा और एन्क्वायरी बैठाई गई। उसमें जेलर पर भी आफत आ सकती थी इसलिए उसने अपने बचाव के लिए कुछ तरीके निकाले। जेलर जेल में इनसे अलग पर सामने वाली बैरक में बंद संघ के लोगों के पास गया और उनसे कहा कि देखिए आप लोग मेरे पक्ष में गवाही दीजिएगा। वैसे भी ये कम्युनिस्ट तो आपके जन्मजात शत्रु हैं। कहिएगा कि इन लोगों ने हमला किया। संघ के कार्यकर्ताओं को नेतृत्व गोपाल गोडसे ही कर रहे थे। उन्होंने जेलर की बात मानने से साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि शत्रुता हमारी वैचारिक है कोई भौतिक तो नहीं। हम तो वही कहेंगे जो देख रहे हैं। गलती तो जेलर साहब आपकी ही थी। जांच में जेलर दोषी पाया गया। लकिन इसका एक नतीजा तो यह हुआ कि कम्युनिस्ट और संघी कार्यकर्ता करीब आए। कुछ दिन बाद होली का त्योहार आया। पर चूंकि संघ ने होली मनाने का बायकाट किया था इसलिए कम्युनिस्ट कैदी उनके पास रंग और अबीर लेकर गए तथा गुझिया भी। दोनों गले मिले, परस्पर रंग लगाया गया और गुझिया भी खाई गई।
इसे यहां लिखने का मेरा आशय है कि आज कम्युनिस्ट नेता यह मानने को राजी नहीं हैं कि विचार और व्यवहार में अंतर होता है। वे विचार के प्रसार के लिए काम करते हैं या परस्पर शत्रुता के लिए। नाथूराम गोडसे ने जो किया वह उसका राजनीतिक मंतव्य था। मगर उससे पारस्परिक शत्रुता तो नहीं होती। जब तक किसी का राजनीतिक मंतव्य एक पूरे समाज को आघात न पहुंचाए उसे आतंकी नहीं करार दिया जा सकता। हम तो नेहरू इरा में ही पढ़े हैं और हमें यही पढ़ाया गया कि नाथूराम गोडसे एक अतिभावुक मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति था और उसने गांधी को मार दिया। नाथूराम गोडसे ने इसकी सजा भी पाई और तब न तो संघ ने न उसके किसी कार्यकर्ता ने कोर्ट के इस फैसले का विरोध किया था। अलबत्ता स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू जी ही गोडसे की दलीलों के असर में बह गए थे।