अब कैसे कहूं, कि कोई लौटा दे मेरा बचपन !
बचपन कभी कुपोषित होकर और कभी संक्रमित बीमारी से मरता है या फिर स्कूल में हादसे या बलात्कारी तक द्वारा भी मौत के घाट उतार दिया जाता है।
New Delhi, Sep 13 : जब एक बच्चा मरता है तो देश (का भविष्य) मरता है। फिर चाहे गोरखपुर में बीमारी से मरें या फिर गुरुग्राम में प्रद्दुम्न का क़त्ल हो। माता पिता अपना पेट काट कर (भूखे रहकर) भी अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के सपने देखते हैं। बच्चों के स्वास्थ्य व सुरक्षा की जिम्मेदारी जितनी माता-पिता की है उतनी ही सरकारों की भी है ।
आज हो रही बच्चों की मौतों को देख डर लगने लगा है कि कैसे किसी से कहें कि ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन(मेरा बचपन)’। यदि फिर से बच्चा हो गया तो किसी हादसे का शिकार न हो जाऊँ, स्कूल में या फिर अस्पताल में कहीं मारा न जाऊँ, न स्कूल में सुरक्षित और न ही अस्पताल में इलाज होगा। अब कोई सरकारें भी नहीं सुनती बच्चों की सिसकियाँ। बचपन कभी कुपोषित होकर और कभी संक्रमित बीमारी से मरता है या फिर स्कूल में हादसे या बलात्कारी तक द्वारा भी मौत के घाट उतार दिया जाता है। बाल संरक्षण अधिनियम है, बाल संरक्षण आयोग भी हैं और न जाने व्यवस्था के नाम पर क्या कुछ नहीं, क्यों सब कुछ बेमानी, ख़ुट्टल सा लगता है।
किसी ने ठीक कहा है ….
‘अजीब सौदागर है ये वक़्त भी,
जवानी का लालच दे कर बचपन ले गया।’
कभी झुग्गियों में बीतता है बचपन, कभी मां की हो जाती है मौत, कभी तंत्रिक मार डालता है मासूम को, कभी झंडा हाथ में लेकर नेताओं का स्वागत करते हुए बेसुध हो जाता है।
कभी दंग़ो की बलि चढ़ जाता है, कभी ‘ब्लू व्हेल’ का खेल मार डालता है। किसी माँ के आँख का तारा, किसी के आँगन का सूरज, कि गुम होती किलकारियों से सिसक रहा है अपना देश……
बच्चों और उनके बचपन को बचा लो… ये स्कूल के मालिकों…. ये मेरी सरकारों…. बच्चों के लिए बने आयोगों !