डॉक्टर अमरापुरकर की मौत से उभरे सवालों के जवाब किसके पास हैं?

पीएमओ ने महाराष्ट्र के चीफ सेक्रेटरी को चिट्ठी लिखकर डॉक्टर अमरापुरकर की मौत की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक करने को कहा।

New Delhi, Sep 22 : मुंबई के मशहूर ब्रीच कैंडी अस्पताल में अंतरराष्ट्रीय ख्याति के एक डॉक्टर हुआ करते थे, जिनका नाम था दीपक अमरापुरकर। पिछले महीने मुंबई के एक खुले मेनहोल में गिरकर उनकी मौत हो गई थी। एक मशहूर शख्सियत का इस तरह मेनहोल में गिरकर मर जाना हर किसी को सन्न कर गया। मामले की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय तक ने इसमें दखल दिया। पीएमओ ने महाराष्ट्र के चीफ सेक्रेटरी को चिट्ठी लिखकर डॉक्टर अमरापुरकर की मौत की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक करने को कहा।

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जब जांच शुरू हुई तो अधकचरे विकास, संसाधनों के असमान वितरण, भ्रष्टाचार और महानगर में चल रहे वर्ग संघर्ष की पुरानी कहानियां एक-एक करके फिर से याद आने लगीं। पुलिस ने परेल के एक चाल में रहने वाले पांच लोगो को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस का कहना है कि इन्ही लोगो ने मेनहोल खोला था, ताकि इनके घरो में भर रहा पानी गटर के रास्ते से बाहर निकल जाये। सभी लोगो पर गैर-इरादतन हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया गया है।
गिरफ्तार किये गये लोगो के परिवार वाले अलग कहानी बयान कर रहे हैं। उनका कहना है कि मौत एक बड़े आदमी की हुई है। गलती बीएमसी की है और अपनी कमी पर्दा डालने के लिए गरीबों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। सच और झूठ का पता जांच के बाद चलेगा या फिर शायद कभी ना चले लेकिन भारत के शंघाई की हकीकत हर मानसून की तरह एक बार फिर सामने हैं।

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सड़क परिवहन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल करीब 11 हज़ार लोगो की मौत रोड पर बने गड्डो में गिरने से होती है। मुंबई के गड्ढे तो पूरी दुनिया में बदनाम हैं। म्यूनिसपल कॉरपोरेशन के अरबो के बजट और कोर्ट की लगातार फटकार के बावजूद ये गड्डे कभी पूरी तरह नहीं भरे जाते।
ना जाने वो कौन सा तंत्र था, जो इन गड्डो को भरने नहीं देता या फिर भरते ही दोबारा फिर से खोद देता है? नतीजा ये कि हर साल कई लोगो को जान से हाथ धोना पड़ता है। ताजा हादसा एक महिला बाइकर के साथ हुआ। बाइक गड्डे में घुसी, चलाने वाली महिला सड़क पर जा गिरी और पीछे से आ रहे ट्रक ने उसे वहीं रौंद दिया। मरने वाली उस महिला के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं।

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साल 2011 की जनगणना के मुताबिक मुंबई की आबादी करीब पौने दो करोड़ है। शहर का पुराना जर्जर इंफ्रास्ट्रक्चर इतनी विशाल आबादी को ढोने की हालत में नहीं है। मुंबई की आधी आबादी झुग्गियों में रहती है, जहां सामान्य जिंदगी जीने लायक हालात नहीं है। झुग्गियों मे रहने वाली ये आबादी शहर की करीब 8 फीसदी जमीन का इस्तेमाल करती है। यानी बाकी की 92 फीसदी ज़मीन शहर की 50 फीसदी आबादी के नियंत्रण में है। मुंबई में संसाधनों का यह गैर मुनासिब बंटवारा एक ऐसे वर्ग संघर्ष का आधार तैयार करता है, जिसका खत्म होना मुश्किल है। अपराध लेकर तरह-तरह के संघर्षों की बड़ी वजह यही असमानता है। सवाल ये है कि इसे दूर करने के लिए सरकारों ने अब तक क्या किया है?

आदर्श स्थिति यह है कि झुग्गियों को हटाकर उस ज़मीन का इस्तेमाल ऐसी परियोजनाओं के लिए किया जाये जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगो को घर मिल सके। लेकिन मुंबई के इतिहास में अब तक झुग्गियों में रहने वाले सिर्फ डेढ़ लाख लोगो को पुनर्वास हो पाया है और उसमें भी ढेर सारी शिकायतें हैं। री डेवलपमेंट परियोजनाओं के तहत लोगो को फिर से उसी जगह मकान दिये जाने का प्रावधान है, जहां वे पहले रहते थे। लेकिन इस मामले में गंभीर गड़बियों की कहानियां हमेशा से रही हैं। बिल्डर-नेता नेक्सस इन गरीब लोगो तक रीडवलमेंट का फायदा नहीं पहुंचने देता है। ये बार-बार कहा जाता है कि सरकारी तंत्र में बैठे लोग मिलीभगत करके बिल्डर्स को फायदा पहुंचाते हैं। कई बिल्लर्स सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि नेताओं और अफसरों की मनमानी वसूली से उनपर बहुत ज्यादा अार्थिक दबाव है। एक बिल्डर ने तो यह बात बकायदा अपने सुसाइड नोट में लिखी।

बिल्डर्स के साथ मिलीभगत का ताजा इल्जाम महाराष्ट्र की फड़णवीस सरकार के आवास मंत्री प्रकाश मेहता पर है। पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान ने विधानसभा तक में यह मुद्धा उठाया है। चौहान का आरोप है कि स्लम रीहैबिलिटेशन अथॉरिटी (एसआरए) एक स्वायत्त संस्था है, इसके बावजूद आवास मंत्री ने उसे मनमाना आदेश दिया ताकि वे ऐसे प्रावधान करे जिससे एक खास बिल्डर को फायदा पहुंचे। घोटाला सैकड़ो करोड़ रुपये का है। मेहता के इस्तीफे की मांग लगातार उठती रही है। लेकिन सच पूछा जाये तो ऐसे आरोप ना तो पहली बार आरोप किसी सरकार पर लगे हैं और ना बचाव मे दी जानेवाली सफाइयों में कुछ नया है।
राजनीतिक दल शहरी विकास की हमेशा एक चमकदार तस्वीर पेश करते हैं। जिसमें चमचमाती सड़कें, बड़े मॉल और शानदार परिवहन व्यवस्था हो। लेकिन इन दावों के बावजूद भारत में एक भी ऐसा शहर नहीं है, जिसे बुनियादी मापदंडो पर एक आदर्श शहर माना जा सके। अगर ज्यादा बरसात हो मुंबई ही नहीं बल्कि दिल्ली के भी बहुत से पॉश इलाके डूब जाते हैं। ड्रेनेज से लेकर ट्रैफिक व्यवस्था तक एक भी ऐसा बुनियादी मसला नहीं है, जिसे किसी सरकार ने पूरी तरह हल करके दिखाया हो। लेकिन बेशुमार वायदे ज़रूर हैं और इन वायदों के साथ है, विकास के नाम पर बनने वाली एक काल्पनिक छवि।

हाल में अंग्रेजी के एक मशहूर अख़बार ने दिलचस्प आंकड़ा जारी किया था। नवी मुंबई में लाखों की तादाद में बने आधे से ज्यादा फ्लैट खाली हैं। यानी फ्लैट का कब्जा मिल चुका है, लेकिन ना तो मकान मालिक खुद रहता है और ना ही कोई किरायेदार। आखिर यह कैसे संभव है? यह संसाधनों के असमान वितरण, ब्लैक मनी की ताकत और विकास की काल्पनिक छवि का कमाल है। भविष्य में बनने वाले किसी एयरपोर्ट की कोई कहानी या भावी स्मार्ट सिटी का कोई नारा इस तरह काम करता है कि सारे इनवेस्टर दौड़ पड़ते हैं। कई आंकड़े बताते हैं कि भारत के महानगरों में रीयल स्टेट की कीमत पूरी तरह आर्टिफिशियल है। यानी कीमत डिमांड और स्पलाई के आधार पर तय नहीं हो रही है बल्कि एक धारण बनाकर कीमत बढ़ाई गई है। सिर्फ मुंबई ही नहीं बल्कि दिल्ली, गुड़गांव और नोएडा की भी यही कहानी है। भारत बड़े सपनों में जी रहा है लेकिन पानी, बिजली सड़क और गटर के बुनियादी सवाल अब भी अनसुलझे हैं। यही सवाल एक बार फिर सामने आया और मुंबई में राह चलते एक मशहूर डॉक्टर की मौत का कारण बना।

(वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)