बीएचयू : असल समस्या यह सोच है, जो कहती है कि बाहर खतरा है !

बीएचयू में आधी आबादी की जिंदगी. जैसी की खबरें आ रही हैं, उससे लगता है कि बीएचयू प्रशासन तक आज भी लैंगिक समानता की सोच की हवा पहुंच नहीं पायी है।

New Delhi, Sep 24 : पिछले कुछ दिनों से मैं काफी गंभीरता से जेएनयू और बीएचयू के बिल्कुल अलदहा माहौल को लेकर एक उपन्यास लिखने के बारे में सोच रहा हूं. जैसे ही वक्त मिलेगा मैं उसमें जुट जाउंगा. निश्चित तौर पर दोनों जगहों का माहौल एक दूसरे के उलट है, जहां जेएनयू कम्युनिज्म इंटरनेशनल के थीम पर बसा एक वैश्विक शिक्षण संस्थान है, वहीं बीएचयू गाय और गंगा पट्टी की सामंतवादी और रूढीवादी सोच का प्रतीक है. हालांकि दोनों की अपनी-अपनी खूबियां और सीमाएं हैं. मगर कुछ चीजें तो ऐसी हैं जिन्हें आज के जमाने में होना ही नहीं चाहिए था.

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जैसे, बीएचयू में आधी आबादी की जिंदगी. जैसी की खबरें आ रही हैं, उससे लगता है कि बीएचयू प्रशासन तक आज भी लैंगिक समानता की सोच की हवा पहुंच नहीं पायी है. वे स्त्रियों को उसकी इज्जत से तौलते हैं. वे उस पुरातन सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं कि लड़कियों को विवाह से पहले हर हाल में अपना शील बचा लेना चाहिए. इसकी सुरक्षा सबसे जरूरी है. बाद बांकी पढ़ाई हो तो हो, न हो तो न हो.
इसलिए उन्हें हर मुमकिन पिंजरे में कैद करने की कोशिश की जाती है. शाम ढलते ही हॉस्टल बुला लिया जाता है. खिड़कियों को बंद रखने कहा जाता है. ऊंची आवाज में बात करने से रोका जाता है. हालांकि इस तरह के कैदखानों में भी स्त्रियों का शील कितना सुरक्षित रहता है, कहना मुश्किल है.

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अपने किशोरावस्था में पूर्णिया से लेकर, भागलपुर, पटना और पूर्वी भारत के कई शहरों में महिला कॉलेज के ऐसे कई हॉस्टलों की चर्चा मैंने सुनी है. जहां पुरुषों को एंट्री नहीं है. विशाल फाटकों के बीच हजारों लड़कियां रहती हैं और लड़के उनके आसपास उनकी एक झलक के लिए मंडराते रहते हैं. कुछ लोग दीवार कूद कर अंदर जाने की कोशिश करते हैं. कुछ दूसरी तरह के प्रतिक्रिया करते हैं. इसके बावजूद इन तमाम हॉस्टलों की कोई न कोई कथा होती है, कि कैसे वार्डन कुछ लड़कियों को बड़े लोगों के पास भेजती हैं और ऐसी ही कई और कथाएं. मुझे लगा था कि पिछली सदी के आखिर और इसी सदी के पहले दशक के दौर का यह चलन अब खत्म हो चला होगा. मगर बीएचयू की घटना बताती है, कि ज्यादा कुछ नहीं बदला है.

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वहीं जेएनयू जिस सोच का प्रतिनिधित्व करता है, वहां लड़कियों की समानता के लिए वह हर तरह के रिस्क लेने के लिए तैयार रहता है. उदय प्रकाश की कहानी रामसजीवन की प्रेम कथा में मैंने पढ़ा है कि कैसे उस जमाने में एक ऐसे हॉस्टल की परिकल्पना की गयी थी, जहां लड़के और लड़कियां एक ही भवन में रहते थे. सोच यह है कि शील की रक्षा के नाम पर लड़कियों की समानता के अधिकार को बाधित न किया जाये. वह लड़कों की तरह घूम-फिर सके. समय की पाबंदी न हो, जगह की पाबंदी न हो. अगर इसके लिए जरूरी है तो उसे सुरक्षा उपलब्ध कराई जाये. यह नहीं कि शील बचाने के नाम पर वह कैदियों की तरह रहे.

यह बड़ा अजीब है कि काउ बेल्ट के पारंपरिक ग्रामीण समाज में व्याप्त इस रूढी को कैसे यहां के शिक्षण संस्थान तक फोलो करते हैं. वे नये जमाने की सोच के हिसाब से नहीं चलते. होस्टल तो होस्टल इस इलाके में कोई मकान मालिक किसी लड़की को किराये पर मकान दे-दे तो भी वह अपना परम कर्तव्य समझता है कि वह उससे पूछे कि वह सात बजे के बाद कहां थी. वह इस बाद को अपनी जिम्मेदारी समझता है कि जिस हालत में उसे लड़की मिली है, उसका शील भंग हुए बगैर उसी हाल में उसके मां-बाप को वापस करे. प्राइवेट लॉज भी इसी कांसेप्ट पर बनते हैं.
असल समस्या यह सोच है. जो कहती है कि बाहर खतरा है, लड़के छुट्टा घूम रहे हैं, कभी भी तुम्हारा रेप कर सकते हैं. इसलिए काम से काम रखो. शालीन कपड़े पहनो, बाहर निकलो तो नजर झुका कर निकलो, काम खत्म होते ही घर आ जाओ और भली लड़की की तरह घर में शांति से रहो. आज भी यहां कोई यह नहीं कहता कि बाहर गुंडे हैं तो गुंडों को अंदर करो. उनकी वजह से हमारी बेटियां क्यों कैद भोगे… और जब तक हम यह कहना, इस तरह सोचना नहीं सीखेंगे. हमारी दुनिया ऐसी ही रहेगी, इतनी ही पिछड़ी.
और यह भी तय है कि हमारी सोच खुद नहीं बदलेगी. लड़कियां ही लड़-झगड़ कर हमारी आंखों का परदा उतारेगी. जिंदाबाद बीएचयू की लड़कियों.

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)