3 साल बाद ये ख़्याल क्यों आया कि रोज़गार के आंकड़ों की प्रमाणिकता होनी चाहिए?

इनके आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में तीन सालों में बताने लायक कुछ भी रोज़गार पैदा नहीं हो सका है। सरकार ने तो अब मुद्रा योजना का भी आंकड़ा छोड़ दिया है

New Delhi, Oct 15: प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने कहा है कि भारत में रोज़गार और बेरोज़गारी के प्रमाणिक आंकड़े नहीं हैं। 12 जुलाई को अमित शाह ने कहा, तीन साल के दौरान केंद्र की मुद्रा योजना के तहत करीब 8 करोड़ लोगों ने स्व-रोज़गार प्राप्त किया है। क्या बिबेक देबरॉय बता सकते हैं कि अमित शाह का जो आंकड़ा है, प्रमाणिक था या नहीं? इसे जुमला माने या न माने। मुद्रा योजना के तहत जिन्हें क़र्ज़ दिया गया है, उसी के आधार पर तो यह दावा किया गया होगा न। यह बयान प्रेस में छपा भी है। जुलाई से पहले इसी साल के मई महीने में मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर अमित शाह ने कुछ कहा कहा था

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अमित शाह ने कहा था कि 125 करोड़ की आबादी वाले भारत में सभी को नौकरी देना संभव नहीं है। हम रोज़गार के प्रति नई समझ पैदा कर रहे हैं। नौकरी पैदा नहीं कर रहे हैं, समझ पैदा कर रहे हैं! समझ पैदा करना भी एक जॉब ही है। वो व्हाट्स अप यूनिवर्सिटी के लेवल से झलक रहा है। वैसे यह बात बहुत हद तक सही है कि भारत में कोई मुकम्मल पैमाना नहीं है। जिससे आप तुरंत का तुरंत जान सकें और व्यापक रूप से अंदाज़ा मिल सके। भारत सरकार ने हाल ही में एक टास्क फोर्स बनाया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वर्तमान में जो लोग नौकरी के आंकड़े जमा कर रहे हैं, वो अपर्याप्त हैं और अविश्वसनीय हैं।

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INDIAN LABOUR BUREAU. CENTRE FOR MONITORING INDIAN ECONOMY AND NATIONAL SAMPLE SURVEY OFFICE नौकरी के आंकड़े जारी करता रहा है। इनके आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में तीन सालों मेंjobs india बताने लायक कुछ भी रोज़गार पैदा नहीं हो सका है। सरकार ने तो अब मुद्रा योजना का भी आंकड़ा छोड़ दिया है वरना रोज़ रोज़ बताते कि आठ करोड़ ने स्व-रोज़गार हासिल किया है। दस अक्तूबर को बिजनेस स्टैंडर्ड में CMIE के महेश व्यास ने लिखा है कि शहरों में बेरोज़गारी की दर 83 प्रतिशत बढ़ी है। लेबर मार्केट में मज़दूरों का आना तो बढ़ा है मगर उन्हें काम नहीं मिल रहा है।

 

महेश व्यास की संस्था की विश्वसनीयता काफी है। जनवरी 2016 से अक्तूबर 2017 के बीच वे पांच दौर का सर्वे कर चुके हैं।jobs india संस्था की वेबसाइट पर 185 पन्नों की रिपोर्ट है। पूरा पैमाना बताया गया है। ऐसा नहीं कि जो मन में आया कह दिया। सरकार को यह भी बताना चाहिए कि तीन साल बाद यह ख़्याल क्यों आया कि नौकरी के आंकड़ों की प्रमाणिकता होनी चाहिए? क्या इसलिए कि लोग हिसाब मांगने लगे हैं? क्या इसलिए कि अब कुछ दिखाने को नहीं है?

(वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)