केजरीवाल की कनपटी पर सुप्रीम कोर्ट का ‘झटका’, बताया कौन है ‘दिल्‍ली का बॉस’

अधिकारों की जंग में दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट से भी तगड़ा झटका लग गया है। कोर्ट ने बताया कौन है ‘दिल्‍ली का बॉस’

New Delhi Nov 02 : अधिकारों की जंग को लेकर दिल्‍ली सरकार या कहें दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल लंबे समय से कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे। लेकिन, अब केजरीवाल ये जंग हार चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्‍ली सरकार और उपराज्‍यपाल के बीच चल रही अधिकारों की जंग में अपना फैसला सुना दिया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपने फैसले स्‍पष्‍ट कर दिया है कि दिल्‍ली के असली बॉस उपराज्‍यपाल ही हैं। अदालत ने कहा कि संविधान के तहत उपराज्‍यपाल को प्रमुखता दी गई है। दिल्‍ली सरकार के लिए ये जरूरी है कि वो अपने फैसलों पर उपराज्‍यपाल की सहम‍ति लें। इससे पहले दिल्‍ली हाईकोर्ट ने भी उपराज्‍यपाल को ही दिल्‍ली का बॉस बताया था। हालांकि दिल्‍ली हाईकोर्ट के उस फैसले को केजरीवाल की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। लेकिन, अब सुप्रीम कोर्ट ने भी क्लियर कर दिया है कि दिल्‍ली का असली बॉस उपराज्‍यपाल ही हैं।

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सुप्रीम कोर्ट ने दिल्‍ली सरकार को समझाया और बताया कि बतौर केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली सरकार के अधिकारों की संविधान में व्याख्या की गई है और उसकी सीमाएं तय हैं। इसके साथ ही उपराज्‍यपाल के अधिकार भी संविधान में चिन्हित किए गए हैं। अदालत का कहना है कि देश के राष्‍ट्रपति उपराज्‍यपाल के जरिए दिल्‍ली में प्रशासनिक कार्य करते हैं। ऐसे में दिल्‍ली सरकार को संविधान के दायरे में रहकर ही काम करना होगा। उसे ये समझना होगा कि जमीन, पुलिस और पब्लिक आर्डर पर उसकी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। यहां पर सुप्रीम कोर्ट ने केजरीवाल सरकार को फटकार भी लगाई और कहा कि ऐसा लगता है कि दिल्‍ली सरकार कानून के दायरे में रहकर काम करना ही नहीं चाहती है। अगर सरकार और उपराज्‍यपाल के बीच किसी मसले को लेकर मतभेद भी होता है तो उसे राष्‍ट्रपति के पास भेजा जाएगा। उनका फैसला ही अंतिम होगा।

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सुप्रीम कोर्ट ने केजरीवाल सरकार से ये भी कहा कि जब तब आप ये नहीं बताएंगे कि उपराज्‍यपाल कहां और किस मसले पर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम कर रहे हैं तक इस मुद्दे का परीक्षण कर पाना संभव नहीं होगा। इसलिए संवैधानिक प्रावधानों को सौहार्दपूर्ण तरीके से निपटाना चाहिए। ताकि चुनी हुई सरकार की भी गरिमा बनी रही। उधर, केजरीवाल सरकार की दलील दी थी कि उपराज्‍यपाल के जरिए केंद्र सरकार दिल्‍ली सरकार के हर काम में हस्‍तक्षेप कर रही है। मंत्रियों और अफसरों को काम ही नहीं करने दिया जा रहा है। अगर एक फाइल उपराज्‍यपाल के पास भेजी जाती है तो उसे साल-साल भर तक क्‍लीयर ही नहीं किया जाता है। दिल्‍ली सरकार ने अदालत ने कहा कि क्‍या उपराज्‍यपाल जो चाहें वो कर सकते हैं। बिना मिनिस्‍टर के अफसरों के साथ मीटिंग कर सकते हैं। क्‍या उन्‍हें दिल्‍ली सरकार और अफसरों को परेशान करने का हक है।

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इस पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा कि उपराज्यपाल को फाइलों पर कारण सहित जवाब देना चाहिए और ये काम तय वक्‍त में पूरा किया जाना चाहिए। केजरीवाल सरकार ने अपनी ओर से वरिष्‍ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम को बहस के लिए अदालत में खड़ा किया था। वो भी इस बात से सहमत थे कि दिल्‍ली पूर्ण राज्‍य नहीं बल्कि केंद्रशासित प्रदेश है। जिसे 1991 में एक एक्‍ट के जरिए स्‍पेशल स्‍टेट का दर्जा मिला हुआ है। जिसमें दिल्‍ली की सरकार जनता चुन सकती है। लेकिन, 239 एए के तहत सरकार को कोई भी फैसला लेने से पहले उपराज्‍यपाल की मंजूरी लेना जरूरी होगा। हालांकि सुब्रमण्‍यम स्‍वामी ने अदालत के समक्ष कई संवैधानिक तर्क भी रखे। लेकिन उनकी दलीले अदालत में बहुत काम नहीं आईं। उनका कहना है कि दिल्‍ली की चुनी हुई सरकार की जवाबदेही जनता के प्रति होती है ना कि उपराज्‍यपाल के प्रति। बहरहाल, केजरीवाल ये जंग सुप्रीम कोर्ट में भी हार गए हैं।