नेहरु से राहुल तक: आयातित सेकुलरिज्म से उदारवादी हिंदुत्व तक

अगर नेहरु परिवार वंशवाद का दोषी है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मात् संगठन के रूप में वही करता है

New Delhi, Dec 11: नेहरु परिवार और कांग्रेस के नाभि-नाल बद्धता को समझने के लिए तुलसी के रामचरित मानस की चौपाई — एक धरम परिमिति पहिचाने , नृपहिं दोष नहीं दीन्ही सयाने “ का जनता का भाव समझना होगा. जब दशरथ जी ने राम को बनवास जाने की आज्ञा दी तो प्रजा में कुछ लोग फैसले से आहात थे लेकिन सुधि जनों ने उन्हें समझाया कि धर्म की सीमा समझ कर राजा में दोष नहीं देखना चाहिए”. भारत में प्रजातंत्र तो आया पर “राजा के प्रति भाव “ आज भी वैसा हीं है. भारत का प्रजातंत्र एकल नेतृत्व में विश्वास करता है . जवाहरलाल और उनका परिवार कांग्रेस से अलग हो तो जनता नहीं कांग्रेस बिखर जाती है. वोट कांग्रेस को नहीं जवाहर लाल, इंदिरा , राजीव या सोनिया को मिलते हैं.  जनता के इस भाव का एक दूसरा पहलू देखिये. भारतीय जनता पार्टी तो वैचारिक तौर पर मजबूत मानी जाती है लेकिन एक नरेन्द्र मोदी के परिदृश्य में आने पर इस पार्टी का वोट २००९ के चुनाव में हासिल १८.६ प्रतिशत से बढ़ कर सन २०१४ में ३२.७ प्रतिशत पर चला जाता है. लिहाज़ा  नेहरु और नेहरु परिवार को वंशवाद का दोषी मानने वालों को यह समझना होगा कि भारतीय जनता का मिजाज हीं एकल नेतृत्व का है , कम्युनिस्ट नहीं चल पाए क्योंकि उनके यहाँ विचार प्रधान था, व्यक्ति गौण.

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एक समाज जो शहाबुद्दीन सरीखे खतरनाक अपराधी को अपना “रोबिनहुड मान कर पांच बार लोक सभा में चुनता हो , एक समाज जहाँ भ्रष्टाचार के आरोप के बावजूद कोई लालू यादव देश की छाती पर सत्ता की चक्की से वर्षों तक मूंग दलता हो उसमें वंशवाद को पार्टियों के चरित्र से हटाना और प्रजातान्त्रिक तरीके से नेता चुनने की अपेक्षा रखना मूल सत्य से मुंह मोड़ना होगा. क्या भारतीय जनता पार्टी में अमित शाह किसी आतंरिक चुनाव से आये थे? क्या वेंकैया , ज ना कृष्णमूर्ति या कुशाभाऊ ठाकरे कार्यकर्ताओं के बैलट से पार्टी के अध्यक्ष के रूप में चुने गए थे. अगर नेहरु परिवार वंशवाद का दोषी है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मात् संगठन के रूप में वही करता है.  मूल प्रश्न जनता की समझ को लेकर है कि वह कांग्रेस को नेहरु परिवार का पर्याय समझती है . विश्लेषण इस बात का होना चाहिए कि क्या जनता के इस “राजा के प्रति समर्पण” के प्राचीन भाव को नेहरु परिवार ने ७० साल में सत्ता पाने का साधन मात्र माना या अपने को जन सेवा में समर्पित किया और अगर किया तो कितना और कितनी सही दिशा में.    

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भारत के पहले प्रधानमंत्री और देश के मकबूल रहनुमा पंडित जवाहरलाल ने भारत के गणतंत्र बनने के एक साल में हीं सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार और राष्ट्रपति के वहां प्राणप्रतिष्ठ समारोह में जाने का पुरजोर विरोध करते हुए इसे धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ बताया. यह वह काल था जब उनके सेकुलरिज्म के यूरोपीय स्वरुप के प्रति आस्था पर अंकुश लगाने के लिए न तो महत्मा गाँधी जिंदा थे न हीं सरदार पटेल. उसके २६ साल बाद उनकी पुत्री और भारत की प्रधानमंत्री इंदिरागांधी ने आपातकाल के शासन के दौरान इस सेकुलरिज्म को संविधान की प्रस्तावना में ४२ वें संशोधन के जरिये जोड़ कर कंफ्यूजन को और बढ़ा दिया या सत्य को स्वीकार न करने का स्वांग करने लगी. सत्य अगर ज्यादा दिन नज़रंदाज़ हो तो इतिहास करवट लेने लगता है. अगले आठ वर्षों में हीं याने १९८४ में राम मंदिर को लेकर हिंदू समाज उद्वेलित करने के लिए विश्व हिन्दू परिषद् खडा हो गया. इतिहास ने करवट ली. आन्दोलन जोर पकड़ता गया. अगले पांच साल बाद उनके नाती (इंदिरागांधी के पुत्र) राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री के रूप में अहसास होने लगा इतिहास की गलतियों को नज़रंदाज़ करने का. १९८९ में अयोध्या में युवा राजीव ने आम चुनाव के पहले राम मंदिर के शिलान्यास का फैसला किया और अपने भाषण में पांच बार राम का नाम लिया. पर चूंकि पुरखों का भाव ठीक उल्टा था इसलिए इस टोकेनिस्म ने हिन्दुओं को तो प्रभावित किया हीं नहीं, मुसलमान भी बिदक गए.

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यूं पी , बिहार सहित देश के अन्य भागों में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह के फैसले ने समाज में एक नए जाति आधारित दबाव समूह को जन्म दिया. अयोध्या में राजीव के मंदिर के शिलान्यास के रवैये से नाराज़ मुसलमान इन तथाकथित “सामाजिक न्याय की ताकतों” के साथ हो चले. कांग्रेस की हालत  “न खुदा हीं मिला , न विशाल-ए-सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे” वाली हो गयी. कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गयी और रही भी तो गठजोड़ करके. वोट प्रतिशत गिरता गया. लेकिन फिर भी चूंकि तासीरन भारतीय समाज अहसान फरामोश नहीं था इसलिए फिर से कांग्रेस को शासन में आई और यह दौर विदेशी मूल की लेकिन राजीव की पत्नी सोनिया का था भले हीं शासन मनमोहन सिंह का. इस बीच इतिहास एक बार फिर करवट लेता है. हिंदू एकता धीरे -धीरे परवान चढ़ती है क्योंकि किसी लालू , किसी मुलायम या किसी मायावती से भी वही टोकेनिस्म मिला. अशिक्षित या दबे समाज में सामूहिक चेतना का स्तर अतार्किकता की भेंट चढ़ जाता है. मायावती , मुलायम या लालू भ्रष्टाचार के पर्याय बनाने लगे लेकिन लालू के वोटर (यादव) इस बात पर हीं क्रुद्ध थे “कि जगन्नाथ बाबू (तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र) भ्रष्टाचार करें तो ठीक लेकिन मेरा नेता करे तो गलत ?”  

शुरू में दलित इस बात से हीं खुश था कि उनकी नेता मयावती भी उच्च जाति के नेताओं की तरह साम्राज्ञी की तरह लाखों रुपये का हार पहनती हैं.  मायावती का भ्रष्टाचार दलितों के लिए सशक्तिकरण का पर्याय बन गया.  कांग्रेस हाशिये पर आने लगी. इस उहापोह में कांग्रेस में फूट पडी. जवाहर लाल के परिवार का वर्चस्व एक बार फिर दरकने लगा. कोई अर्जुन सिंह , कोई कमलापति या कोई नारायण दत्त तिवारी राजीव गाँधी के नेतृत्व का विरोध करने लगे और कुछ तो अलग पार्टी बनाने का उपक्रम भी करने लगे. कोई प्रधानमंत्री नरसिंह राव सोनिया को चुनौती देने लगा . लेकिन सदियों तक गुलाम रही जनता एकल नेतृत्व की हिमायती है लिहाज़ा सोनिया फिर कांग्रेस का नेतृत्व संभालने लगीं, मनमोहन सिंह मात्र प्रधानमंत्री थे शासन सोनिया के इर्दगिर्द हीं रहा . इस बीच कांग्रेस सत्ता में तो आयी पर कैडर संरचना के अभाव में और नेता -कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता से मनमोहन सरकार के अच्छे कार्यक्रम भी जनता के बीच नहीं जा सके . साझा सरकार में समझौते होते हैं लिहाज़ा मनमोहन सिंह की ईमानदारी बाँझ साबित हुई और भ्रष्टाचार का बोलबाला जनता को निराश करने लगा.

इस बीच हिंदू साम्प्रदायिकता परवान चढने लगी. नरेन्द्र मोदी विकास और हिंदू अस्मिता के पर्याय के रूप में राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर छाने लगे. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी बीमार रहने लगीं. राहुल ने जयपुर कांग्रेस अधिवेशान के दौरान एक भावनात्मक भाषण दिया जिसे देशवासियों ने भी टेलीविज़न के जरिये सुना. उसका सार यह था कि राहुल राजनीति को अन्यमनस्क भाव से लेते हैं. अगले कुछ सालों में देश में जब भी कोई बड़ी घटना हुई और देश ने एक मजबूत विपक्ष या नेता की जरूरत महसूस की राहुल गायब पाए गए. लेकिन गुजरात चुनाव में अचानक जिस शिद्दत  से राहुल ने चुनाव प्रचार किया एक बार फिर लगाने लगा कि देश को एक युवा और मकबूल नेतृत्व मिल सकता है. इस दौरान  राहुल गाँधी उसी मंदिर में गुजरात चुनाव प्रचार किया जिस मंदिर के शिलान्यास का उनके परनाना ने विरोश किया था. एक बार फिर लगने लगा कि नेहरू परिवार की पांचवीं पीढी भी राजनीतिक नेतृत्व के लिए तैयार है. राहुल को पार्टी का औपचारिक अध्यक्ष चुना जाना मात्र औपचारिकता है.

लेकिन राहुल ने अपने पिता राजीव गाँधी से सीख लेते हुए कुछ नए ढंग से कांग्रेस की नीति में अमूल चूल परिवर्तन का फैसला किया है. जवाहर लाल की धर्मनिरपेक्षता से ठीक उलट राहुल मंदिर-मंदिर जा रहे हैं (और मस्जिद नहीं). शायद कांग्रेस के रणनीतिकार समझ गए हैं कि मोदी के सत्ता में आने के बाद से देश में जो उग्र हिंदुत्व देखने को मिला है वह भारत के आम हिंदू पसंद नहीं करते और कालांतर में वे इसे ख़ारिज करेंगे क्योंकि तासीरन हिन्दू उदारवादी संस्कृति का है और धर्म में भी वह उग्रता को ख़ारिज करता है. चूंकि उदार हिंदुत्व का स्लॉट खाली है लिहाज़ा कांग्रेस अगर उसे भर पाई तो पिछड़ा वर्ग और दलित एक बार फिर उसके साथ हो सकता है. राहुल की रणनीति सही है लेकिन जनता को अभी भी पूरी तरह यह भरोसा नहीं है कि राहुल गाँधी में राजनीति को लेकर एक निरंतरता रहेगी. अगर वह रही और जनता को विश्वास हो सका तो भारत को एक मजबूत विपक्ष और उदारवादी नेता मिल सकता है. यह प्रजातंत्र के लिए अच्छा होगा.

(वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)