बीजेपी की रणनीति को समझो, ईवीएम को दोष देने से कुछ नहीं होगा

बीजेपी जातिवाद और सामुदायिक-भ्रम की राजनीति का इलाज कर रही है, जबतक इस मर्म को नहीं समझेंगे, नक्शा भगवा रंग में रंगता जाएगा

New Delhi, Dec 24: अंग्रेज जवाहरलाल नेहरू की मिश्रित समाजवादी सोच से इतने अभिभूत थे कि, सवाल पूछते थे, हू आफ्टर नेहरू ? यानी नेहरू के बाद कौन? लगभग तीन दशकों तक भारत की राजनीतिक व्यवस्था का मतलब था, कांग्रेस सिस्टम। यानी कांग्रेस के अंदर ही विभिन्न दबाव समूह तो काम करते थे, लेकिन सरकार और राजनीति का मतलब कांग्रेस ही थी। यहाँ तक कि देश को ही कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी का पर्यायवाची माना जाने लगा। चाटुकारिता की हद हो गई, जब कहा गया, इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया। कांग्रेस का असली दबदबा कम हुआ मंडल आंदोलन और राम मंदिर आंदोलन के बाद। यानी 1989 के बाद। मण्डल आन्दोलन मूलतः पिछड़ों को राजनीतिक मंच और वर्चस्व देने का आंदोलन साबित हुआ। हिंदी हार्ट लैंड में काँग्रेस जैसे जैसे ढहती गई, मंडल आंदोलन से उपजे नेता सशक्त होते गए और दूसरी तरफ कांग्रेस के परंपरागत स्वर्ण वोट बैंक पर बीजेपी ने कब्जा कर लिया।

Advertisement

पिछड़ों के नेता जहां सामाजिक न्याय को दरकिनार कर परिवारवाद में सिमटते गए, वहीं संघ के अनुशासन की वजह से भाजपा अपना विस्तार करती गई। संघ की सोशल इंजीनियरिंग के सामने मंडल का जातिय उभार फीका पड़ता गया। जितने नेता मंडल से उभरे थे सबने अपनी अलग-अलग पार्टी बनाई। अलग-अलग राज्यों में अलग अलग छत्रप, सबकी अपनी अलग पारिवारिक दुकान। मसलन यूपी में मुलायम परिवार, बिहार में लालू और नीतीश, उड़ीसा में बीजू पटनायक का परिवार, हरियाणा में चौटाला का परिवार और कर्नाटक में देवेगौड़ा का परिवार। यानी व्यक्ति ही पार्टी भी बन गया और विचारधारा भी। व्यक्ति के बाद उसके पुत्र- पुत्री। कार्यकर्ता और विचारधारा दोनों ही गौण। यानी 75 साल का कार्यकर्ता नेता जी के 30 वर्षीय पोते की जूती ढ़ोने को विवश हो गया। इस बीमारी पर ध्यान देने की बजाय सिर्फ बीजेपी, संघ और इवीएम को कोसने से कुछ नहीं होगा।

Advertisement

परिवारवाद की वंशबेल बढ़ने के साथ ही मंडल आंदोलन से राजनीतिक तौर पर सशक्त हुई कुछ जातीय समुदायों को भी भ्रम होने लगा कि अमुक प्रदेश की राजनीति तो उनके बगैर चल ही नहीं सकती! यानी विधानसभा पर झंडा किसी भी पार्टी का हो पर वो जिस डंडे के सहारे खड़ा होगा, वो हमारा होगा। दो दशकों तक कुछ हद तक ऐसा चला भी, लेकिन सिर्फ एक जाति लंबे समय तक वर्चस्व रखे तो बाकियों का लामबंद होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। दो दशकों की इसी राजनीति को समझते हुए संघ और बीजेपी ने नए प्रयोग शुरू किए। यानी जिन समुदायों को जिस प्रदेश में राजनीतिक भ्रम हो पहले उसका इलाज करो और उनके लगातार शासन से जो ” सापेक्ष वंचन की भावना, (फीलिंग ऑफ़ deprivation)” दूसरी जातियों में उभरी है, उसे ही कैश करो और अपनी राजनीतिक ज़मीन नए सिरे से तैयार करो।

Advertisement

अब इसको भाजपा के मुख्यमंत्रियों की लिस्ट से समझिए।-झारखण्ड का गठन ही आदिवासी आंदोलन से हुआ, लेकिन आज वहां के मुख्यमंत्री रघुवर दास गैर आदिवासी हैं।-छत्तीसगढ़ में भी आदिवासी की जगह रमन सिंह 15 सालों से मुख्यमंत्री हैं।-महाराष्ट्र में जब भाजपा आई तो गैर मराठा , देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया।-हरियाणा में भाजपा सत्ता में आई तो गैर जाट  मनोहर लाल को कमान दी।-गुजरात में पटेल की जगह विजय रुपाणी को बनाया जो जैन समुदाय से हैं।-उत्तर प्रदेश में किसी पिछड़े की जगह राजपूत जाति से योगी आदित्यनाथ को बनाया। कर्नाटक में भी वोक्कालिगा की जगह एक लिंगायत येदुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाया था।-ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जहाँ भाजपा का प्रयोग सफल रहा है। दरअसल कुछ समुदाय जो अलग अलग प्रदेशों में अपने आप को न सिर्फ बहुसंख्यक और स्वाभाविक शासक मानने लगे हैं

वो ये भूल जाते हैं कि उनकी वर्चस्ववादी राजनीति से ही बाकी जातियां उनके खिलाफ लामबंद होती हैं। बीजेपी ने उन्हीं जातियों की भावना को एनालाइज कर अलग अलग प्रदेशों में अलग प्रयोग किये हैं और आज देश की 65 फीसदी आबादी और 68 फीसदी भू भाग पर बिजेपी का शासन है। क्योंकि किसी भी एक समुदाय की आबादी एक प्रदेश में 25 फीसदी से ज्यादा नहीं है और बाकी 75 फीसदी वालों को फोकस कर एक नई सोशल इंजीनियरिंग को अंजाम देने की गुंजाइश बनी रहती है। यानी कांग्रेस सिस्टम के ढहने के बाद और मंडल आंदोलन के बाद जो हाल सवर्ण जातियों का हुआ, वही बारी अब इन स्वयंभू  पैदाइशी शासक मानने वालों की है।  (ये मेरा व्यक्तिगत राजनीतिक आकलन है, समझ सकें तो ठीक, नहीं तो मेरी नासमझी मानें।)

(पत्रकार ऋषि पांडेय के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)