नौकरियों के घटते और बदलते अवसरों पर चर्चा कीजिए

मोदी सरकार के सामने रोजगार एक बड़ी चुनौती है, नौकरियों के बदलते और घटते अवसर पर चर्चा की जरूरत है, जिस से इस मुद्दे पर काम हो सके।

New Delhi, Jan 07: FICCI और NASSCOM ने 2022 में नौकरियों के भविष्य और स्वरूर पर एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसके बारे में बिजनेस स्टैंडर्ड में छपा है। लिखा है कि इस साल आई टी और कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने जा रहे छात्र जब चार साल बाद निकलेंगे तो दुनिया बदल चुकी होगी। उनके सामने 20 प्रतिशत ऐसी नौकरियां होंगी जो आज मौजूद ही नहीं हैं और जो आज मौजूद हैं उनमें से 65 प्रतिशत का स्वरूप पूरी तरह बदल चुका होगा। ज़रूरी है कि आप अपनी दैनिक समझ की सामग्री में BIG DATA, ARTIFICIAL INTELLEGENCE, ROBOTIC को शामिल करें। इनके कारण पुरानी नौकरियां जाएंगी और नई नौकरियां आएंगी। क्या होंगी और किस स्तर की होंगी, इसकी समझ बनानी बहुत ज़रूरी है। शोध करने वाली एक कंपनी Gartner का कहना है कि artificial intelligence (AI) के कारण मध्यम और निम्न दर्जे की ढेर सारी नौकरियां समाप्त हो जाएंगी। इसकी जगह पर उच्चतम कौशल, प्रबंध वाली नौकरियां आएंगी। स्थाई नौकरियों तेज़ी से चलन से बाहर हो रही हैं।

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साझा अर्थव्यवस्था का चलन बढ़ रहा है। इसे GIGS ECONOMY कहते हैं। मैंने पहली बार सुना है। इसके बारे में ठीक से नहीं मालूम। जैसे कूरियर ब्वाय होगा वो कई कंपनियों का सामान ढोएगा। आप दिल्ली में ही सड़कों पर दुपहिया वाहनों की भीड़ ग़ौर से देख सकते हैं। पीठ पर बोझा लादे ये नौजवान रोज़गार की आख़िरी लड़ाई लड़ते नज़र आएंगे। COWORKING HUB एक नया प्रचलन आया है। इसके बारे में जानने का प्रयास कीजिए। शायद हम और आप किसी चौराहे पर खड़े होंगे, किसी भी काम के लिए, दो या दो से अधिक स्किल के साथ, कोई आएगा काम कराएगा, और घर भेज देगा। घर जाकर हम न्यूज़ चैनलों पर विश्व गुरु बनने का सपना देखते हुए सो जाएंगे। इकोनोमिक टाइम्स की मालिनी ने भी रोज़गार में आ रहे बदलावों पर एक लेख लिखा है। मैंने इसके कुछ अंश भी बिजनेस स्टैंडर्ड में छपे फिक्सी और नैसकॉम की रिपोर्ट के साथ मिला दिया है।

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मालिनी ने लिखा है कि कंपनियों को पूंजी निर्माण के लिए अब वर्कर की ज़रूरत नहीं है। फेसबुक में मात्र 20,000 लोग ही काम करते हैं जबकि कंपनी का वैल्यू 500 अरब डॉलर है। इसे भारतीय रुपये में बदलेंगे तो सदमा लग जाएगा। डिजिटल युग में नौकरी दो स्तर पर होगी। उच्चतम कौशल वाली और निम्नतम मज़ूदरी वाली। बहुत से दफ्तरों में सर छिपा कर काम करने वाले बीच के काबिल लोग ग़ायब। बल्कि ग़ायब हो भी रहे हैं। इन सब बदलावों के सामाजिक राजनीतिक परिणाम होंगे। दुनिया भर में सरकारें तेज़ी से ऐसे एजेंडे पर काम कर रही हैं जो भटकाने के काम आ सके। ऐसे मुद्दे लाए जा रहे हैं जिन्हें सुनते ही सपना आने लगता है और जनता सो जाती है। सरकारों पर दबाव बढ़ रहा है कि न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाएं। मगर आप जानते ही हैं, सरकारें किसकी जेब में होती हैं।

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मालिनी गोयल ने सरसरी तौर पर बताया है कि जर्मनी, सिंगापुर और स्वीडन में क्या हो रहा है और भारत उनसे क्या सीख सकता है। बल्कि दुनिया को भारत से सीखना चाहिए। यहीं का युवा ऐसा है जिसे नौकरी नहीं चाहिए, रोज़ रात को टीवी में हिन्दू मुस्लिम टापिक चाहिए। अब उसे उल्लू बनाने के लिए इस बहस में उलझाया जाएगा कि आरक्षण ख़त्म होना चाहिए। नौकरियों की दुश्मन आरक्षण है। पूरी दुनिया में नौकरी नहीं होने के अलग कारणों पर बहस हो रही है, भारत अभी तक उसी में अटका है कि आरक्षण के कारण नौकरी नहीं है। सरकार कोई प्रस्ताव नहीं लाएगी, बहस तीन तलाक की तरह बहस में उलझा कर युवाओं का तमाशा देखेगी। आरक्षण पर बहस के मसले का इस्तमाल फ्रंट के रूप में होगा, जिसे लेकर बहस करते हुए युवा सपने में खो जाएगा कि इसी के कारण नौकरी नहीं है। नेता वोट लेकर अपने सपने को पूरा कर लेगा। तथ्यों के लिहाज़ से यह हमारे समय का सबसे बड़ा बकवास है। नौकरी न तो आरक्षित वर्ग के लिए सृजित हो रही है और न अनारक्षित वर्ग के लिए। यही फैक्ट है। नौकरियों के सृजन पर तो बात ही नहीं होगी कभी।

जापान के प्रधानमंत्री ने कोरपोरेट से कहा है कि तीन प्रतिशत से ज़्यादा मज़दूरी बढ़ाएं। जापान में एक दशक बाद अर्थव्यवस्था में तेज़ी आई है। कंपनियों का मुनाफा बढ़ा है मगर यहां लेबर की ज़रूरत नहीं बढ़ी है। उनका मार्केट बहुत टाइट होता है। अखबार लिखता है कि यह और टाइट होगा। टाइट शब्द का ही इस्तमाल किया गया है। जिसका मतलब मैं यह समझ रहा हूं कि तकनीकि बदलाव या उत्पादन का स्वरूप बदलने से अब मानव संसाधन की उतनी ज़रूरत नहीं रही। जापान में कई साल तक कई कंपनियों ने मज़दूरी में कोई वृद्धि नहीं की थी। कुलमिलाकर बात ये है कि रोज़गार से संबंधित विषयों पर तथ्यात्मक बहस हो, लोगों को पता चलेगा कि दुनिया कैसे बदल रही है और उन्हें कैसे बदलना है। आप अपनी जानकारी का सोर्स बदलिए, ख़बरों को खोज कर पढ़िए। ध्यान रहे, अख़बार ख़रीद लेने से अख़बार पढ़ना नहीं आ जाता है। हमेशा किसी एक टापिक पर दो से तीन अखबारों देसी और विदेशी मिलाकर पढ़ें।

(वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)