राष्ट्रगानः डंडे से नहीं, प्रेम से

सिनेमाघरों में राष्ट्रगान को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ा फैसला लिया है। इस पर वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार वेद प्रताप वैदिक ने एक ब्लॉग लिखा है।

New Delhi, Jan 13: सिनेमा घरों में राष्ट्रगान के सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले को उलट कर साहस का काम किया है। अब भारत के सिनेमा घरों में फिल्म शुरु होने के पहले राष्ट्र गान जरुरी नहीं होगा। जब राष्ट्र गान ही अनिवार्य नहीं होगा तो सारी समस्या ही सुलझ जाएगी। लेकिन फिर भी यदि कोई सिनेमा मालिक राष्ट्र गान बजाए तो क्या होगा, यह एक सरकारी समिति तय करेगी। क्या अपंग, बीमार और अत्यंत वृद्ध व्यक्ति को भी अटेंशन की मुद्रा में खड़े होना होगा ? वैसे तो सिनेमा में राष्ट्र गान गाया जाए तो फिर खेल-कूद, विवाह संस्कारों और अंतिम संस्कारों के समय भी वह क्यों नहीं गाया जाए?

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जो टोपी सिर पर पहनते हैं, उसे पांव पर भी क्यों नहीं पहना जाए ? अदालत ने राष्ट्र गान को सिनेमाघरों में अनिवार्य करके अपना मजाक बना लिया था। ऐसा लग रहा था कि वह पोप से भी अधिक पवित्र बनने की कोशिश कर रही थी। वह राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद का दिखावा करके हमारी सरकार से भी ज्यादा उस्ताद दिखाई पड़ना चाहती थी लेकिन उसके इस फैसले का मजाक उड़ने लगा तो सरकार ने भी सबक लिया। उसने इस तरह के सभी मामलों पर एक कमेटी बिठा दी। इसके पहले कि संसद, न्यायालय के फैसले को उलट देती, उसने इसे खुद उलट लिया। इसके आगे भी वेद प्रताप वैदिक ने बहुत कुछ लिखा है।

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इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपने राष्ट्र गान, राष्ट्रगीत, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रध्वज की उपेक्षा करें या उनका अपमान होने दें। उनके सम्मान और गरिमा की रक्षा नितांत आवश्यक है। राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत यदि पाठशालाओं में नित्य गवाए जाएं तो बच्चों पर अच्छे संस्कार पड़ेंगे लेकिन वहां भी वह अनिवार्य क्यों हो ?

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उसका न गाना दंडनीय क्यों हो ? माता-पिता और बुजुर्गों का चरण-स्पर्श भारतीय संस्कृति की अदभुत देन है लेकिन उसे न करना जुर्म कैसे करार दिया जा सकता है ? श्रेष्ठ संस्कारों का निर्माण जितना स्वेच्छा से हो, वह इतना ही प्रामाणिक और टिकाऊ होगा। (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग से साभार। ये लेखक के निजी विचार हैं।)