अरविंद केजरीवाल किसी पर तो भरोसा करते होंगे, या फिर सब  मिले हुए हैं

अरविंद केजरीवाल को किस पर भरोसा है, ये सवाल वाजिब है, वो गलत हो सकते हैं ये बात उनके जेहन में क्या कभी नहीं आती है।

New Delhi, Jan 22: दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल इन दिनों थोड़े परेशान से हैं, वैसे तो वो हमेशा परेशान रहते हैं, लेकिन फिलहाल उनकी परेशानी ज्यादा ही बढ़ गई है, आंदोलन से निकली पार्टी के मुखिया केजरीवाल के सामने कुछ ऐसी चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं जिनको उन्होंने खुद खाद पानी दिया है। दिल्ली की सत्ता तो प्लेट में केक की तरह मिल गई लेकिन जिस तरह से केक का हाल होता है उसी तरह का हाल आम आदमी पार्टी का हो गया है। हर किसी को केक का पीस चाहिए था, नियमों के मुताबिक केवल 7 को मिल सकता था, संभावित बगावत को रोकने के लिए 21 टुकड़े और किए गए और उसे नाम दिया गया संसदीय सचिव का। ये फैसला केजरीवाल का था, इसके लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

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अरविंद केजरीवाल के इसी फैसले के कारण पार्टी के 20 वधायकों की सदस्यता पर तलवार लटक रही है, चुनाव आयोग ने लाभ के पद के मामले में इनकी सदस्यता रद्द करने की सिफारिश राष्ट्रपति को भेज दी है, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया है। इसी के साथ केजरीवाल और उनकी पार्टी का जो रवैया सामने आया है वो विरोधाभास से भरा हुआ है। पहली बात तो केजरीवाल को किसी पर भरोसा नहीं है, ये सवाल सबसे महत्वपूर्ण है कि केजरीवाल को किस पर भरोसा है, क्या दुनिया में कोई ऐसा इंसान या संस्था है जिस पर वो भरोसा करते हैं। सुप्रीम कोर्ट अगर केजरीवाल और उनकी पार्टी के खिलाफ कोई फैसला सुना दे तो वो उस पर से भी भरोसा उठ जाएगा। चुनाव आयोग, सीबीआई, ईडी, मोदी सरकार पर तो उनको रत्ती भर भरोसा नहीं है।

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दिल्ली के मुख्य सचिव का वो खत भी केजरीवाल को भरोसेमंद नहीं लगता है जिस पर उन्होंने 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति और उनके लिए दफ्तर और कुर्सियों के खर्चे का ब्यौरा दिया है। आखिर ये किस तरह की राजनीति है. केजरीवाल गलत नहीं हैं, या तो वो ये बात दीवानों की हद तक मानते हैं या फिर उनके साथ कोई समस्या है। दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने से पहले ही अरविंद केजरीवाल को यहां की शासन व्यवस्था के बारे में जानकारी थी, जानकारी नहीं है ये मानने का कोई कारण नहीं है। इसके बाद भी वो ऐसे ऐसे काम करते रहे हैं जिस से टकराव की स्थिति पैदा हो। अपने शासन के शुरूआती दो साल तो उन्होंने हर बात पर मोदी को दोष दिया। लेकिन उसका असर नकारात्मक रहा तो वो खामोश हो गए।

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अब केजरीवाल की भाषा उनके विधायक और मंत्री बोलते हैं, संसदीय सचिव मामले में जिस तरह से आप की तरफ से दलीलें पेश की जा रही हैं वो जनता को गुमराह करने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं है। चुनाव आयोग ने जब आप के विधायकों को बुलाया तो वो नहीं आए, जब आयोग ने विधायकी रद्द करने की सिफारिश की तो आप के विधायक हाईकोर्ट पहुंच गए, कोर्ट ने भी कहा कि जब आयोग ने बुलाया था तो क्यों नहीं गए थे। इस फैसले के बाद चुनाव आयोग फिर से केजरीवाल की नजरों में अपना भरोसा खो बैठा. ईवीएम का मुद्दा हो या फिर चुनावी हार का मुद्दा, केजरीवाल ने चुनाव आयोग का माखौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अगर तो सब आपस में इतने ही मिले हुए हैं तो केजरीवाल को राजनीति छोड़ देनी चाहिए। नहीं तो वो ये बताएं कि उनको आखिर किस पर भरोसा है।