सिंहासन खोने का डर क्या होता है ? कोई उद्धव ठाकरे से जाकर पूछे

उद्धव ठाकरे ने ऐलान तो कर दिया कि 2019 का चुनाव एनडीए से अलग होकर लड़ेंगे। लेकिन जिस रास्ते पर वो चल रहे हैं, वो रास्ता किसी अग्निपथ से कम नहीं है।

New Delhi, Jan 24: 34 साल पुराना रिश्ता और 29 साल पुराना गठजोड़ एक ही पल में खत्म करने का ऐलान। उद्धव ठाकरे ने ये फैसला लेने से पहले मजबूत दिल तो दिखा दिया। लेकिन ये खीज उनके लिए आने वाले वक्त में किसी अग्निपथ से कम नहीं होगी।  शिवसेना के सुप्रीमो ने साफ ऐलान कर दिया कि 2019 का लोकसभा और विधानसभा चुनाव एनडीए से अलग होकर लड़ा जाएगा। अब आगे क्या ? क्या उद्धव को आंखों के सामने जीत नजर आ रही है या फिर दो चार नेताओं के कान भरने भर से ही अति आत्मविश्वास प्रचंड हिलोरे मार रहा है ? क्या उद्धव ने अपने पिता की राजनीतिक बिसात के इतर भी कोई और चौसर बिछाई है, जिसमें जीत का जबरन शंखनाद हो रहा है ?

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सवाल कई हैं, लेकिन इस सवालों का जवाह ढूंढने के लिए जरा हमें पुराने वक्त में जाना होगा। ये बात 1984 की है, जब शिवसेना के नेताओं ने दो सीटों पर बीजेपी के चुनाव चिह्न पर इलेक्शन लड़ा था। इसके ठीक चार साल बाद यानी 1989 में बीजेपी और शिवसेना में गठजोड़ हुआ था। इसके बाद कभी लोकसभा चुनाव में बीजेरी आगे बढ़ती थी, तो कभी विधानसभा चुनाव में शिवसेना आगे रहती थी। जब तक बाला साहेब ठाकरे थे, तब तक सब कुछ ठीक था। पार्टी और संगठन में शिवसेना के नेताओं का भी अच्छा खासा तालमेल बना रहता था। छोटे मोटे विवादों का निपटारा तुरंत होता है। वो बाला साहेब की पॉलिसी ही थी। लेकिन इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 48 में से 23 सीटें मिलीं थी।

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इसी चुनाव में शिवसेना को 18 सीटें मिली थी। इसके बाद 2014 के ही विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर ये अलायंस टूट गया था। इस चुनाव में बीजेपी को 122 सीट मिली थी और शिवसेना को 63 सीट मिली थी। हालांकि रिजल्ट के बाद शायद सत्ता पाने के लिए शिवसेना ने एक बार फिर से बीजेपी का साथ दिया। राज्य में देवेंद्र फड़णवीस के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनी थी। केंद्र सरकार में भी शिवसेना के नेताओं को मंत्री पद दिए गए। इसके बाद भी ठाकरे को चैन नहीं मिला। धीरे धीरे कई मुद्दों पर शिवसेना और बीजेपी के बीच मतभेद सामने आ गए। बाल ठाकरे कभी एक प्रखर व्यक्तित्व के धनी नेता थे। इस वजह से उन्होंने इस गठबंधन को बरकरार रखा था। राजनीति के जानकार कहते हैं कि उद्धव की बात केंद्र में ज्यादा सुनी नहीं जा रही है और इस वजह से सम्मान की खातिर और सिंहासन बनाए रखने के लिए उन्होंने ये फैसला लिया है।

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राजनीति के एक्सपर्ट्स कहते हैं कि उद्ध ठाकरे और बाला साहेब ठाकरे में कई अंतर हैं। इस वक्त बीजेपी और शिवसेना में गठबंधन टूटता है, तो भी लोकसभा में बीजेपी के लिए कोई बड़ा खतरा नहीं है। राज्य में सरकार बचाने के लिए भी बीजेपी को ज्यादा मेहनत नहीं करनी है। पार्टी के पास 122 विधायक हैं, सरकार बचाने के लिए 145 विधायक चाहिए। एनसीपी के पास 41 विधायक हैं और कांग्रेस के पास भी 41 ही विधायक हैं। बताया तो ये भी जा रहा है कि उद्धव ने आदित्य ठाकरे के सुनहरे राजनीतिक भविष्य के लिए ये फैसला लिया है। लेकिन क्या सच में गठबंधन टूटने के बाद आदित्य का राजनीति में उदय होगा ? आने वाला वक्त ही ये तय करेगा।