क्या अब किसानों के दिन बहुरेंगे ?

कृषि विपणन को समवर्ती सूची में ला कर राष्ट्रीय मार्किट ग्रिड से जोड़ें’ ताकि छोटे किसानों का बारगेनिंग क्षमता बढे

New Delhi, Jan 24: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक टी वी इंटरव्यू बेहद सपष्ट तौर पर कहा कि किसानों की समस्या को समझना और निदान करना केंद्र और राज्य सरकारों की हीं नहीं मेरी भी बड़ी जिम्मेदारी है और किसानोंकी स्थिति को लेकर कोई आलोचना होती है तो वह गलत नहीं माना जा सकता. लेकिन इसके साथ हीं उन्होंने फसल बीमा योजना जिसमें लागत की मात्र २ प्रतिशत अंश दे कर किसान बीमा करा सकता है और बाकी सरकारें देती हैं, का जिक्र किया. कहना न होगा कि अगर राज्य सरकारें भी वैसा हीं उत्साह दिखाएँ तो यह योजना किसानोंका भाग्य बदल सकती है. उन्होंने भारत में हीं यूरिया के बढे उत्पादन और उपलब्धता का तथा नीम-लेपित यूरिया से खेती में होने वाले लाभ का भी जिक्र किया. इसी बीच केंद्र की केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी और बहुचर्चित किसानोंकी आय दोगुनी करने (सन २०२२ तक) की योजना जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने पिछले २८ फ़रवरी, २०१६ को बरेली की एक जन सभा में की थी, एक कदम आगे बढी जब पिछले हफ्ते अशोक दलवई समिति ने अपनी १४ वॉल्यूम की विस्तृत इसे रिपोर्ट सौपी.

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पहले की तमाम समितियों और आयोगों से अलग इस रिपोर्ट कुछ क्रांतिकारी सुझाव है जैसे कृषि विपणन को समवर्ती सूची में शामिल करके कुछ नये कानून बनाना, कृषि उत्पाद की मार्केटिंग को देश -व्यापी विपणन नेटवर्क से जोड़ना, लघु व सीमान्त किसानों को खेती को एक साथ सामूहिक खेती के लिए प्रोत्साहित करना और इसके लिए उत्पादक और ग्राम स्तर पर किसानों के संगठन तैयार करना ताकि उनका शोषण न हो सके और सरकारी मदद योजनाओं की डिलीवरी के लिए नयी इलेक्ट्रॉनिक सूचना तकनीकि का प्रयोग करते हुए फसलों का सही आंकलन करना. समिति के अनुसार इन सभी योजनाओं को मुकम्मल करने में अगले चार सालों में करीब साढ़े छः लाख करोड रूपये के निवेश की जरूरत होगी. इसके लिए निजी उपक्रमों को कृषि विपणन में और रणनीति में २६ प्रतिशत तक की साझेदारी के लिए कानून बनाने की सिफारिश भी है. इन सिफारिशों के अमल में आने पर सबसे ज्यादा लाभ उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड , केरल ,पश्चिम बंगाल आदि राज्यों को मिलेगा जहाँ लघु व सीमान्त किसान ९० प्रतिशत से ज्यादा है और उनकी खेती अनुत्पादक होती जा रही है.

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उत्तर भारत के राज्यों में जनसँख्या नियंत्रण पर अपेक्षित सफलता न मिलने के कारण इन राज्यों की कृषि भूमि परिवारों में बंटती जा रही है और अलाभकर खेती बढ़ती जा रही है. सन १९५१ में जहाँ ६.९९ करोड भूमिधर थे आज उनकी संख्या ११.८८ करोड हो गयी है और औसत प्रति किसान खेती का रकबा घट कर मात्र १.१५ हेक्टेयर रह गया जो कि २२ साल पहले तक १.४१ हेक्टेयर था (इसके ठीक उलट अमेरिका में प्रति किसान औसत ४५० हेक्टेयर जमीन है और यह बढ़ती जा रही है). भारत में ९.०२ करोड कृषक परिवार हैं(जो खेती करते हैं) जिनमें से ६.२६ करोड के पास एक हेक्टेयर से भी कम खेती है याने उस परिवार की मासिक आय मात्र ६४२६ रूपये रह गयी है. इसके अलावा जहाँ १९५१ में भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की संख्या मात्र २.७३ करोड थी वह आज लगभग छः गुना बढ़ कर १४.४३ करोड हो गयी है. रिपोर्ट में जो सबसे चौंकाने वाला तथ्य है वह यह कि पहली बार २०११ की जनगणना में खेतिहर मजदूरों को संख्या खेती करने वाले किसानों से बढी है अर्थात किसान खेती छोड़ कर मजदूर बनता जा रहा है क्योंकि खेती अलाभकर व्यवसाय हो गयी है.

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मोदी सरकार के वायदे के मुताबिक अब मात्र चार साल हीं बचे है. आगामी बजट तैयार हो चुका है लिहाज़ा उसमें इस रिपोर्ट की अनुशंसा को शामिल किये जाने की संभावना लगभग नहीं है. दूसरे पिछले तीन वर्षों में शुरू के दो वर्ष किसान सूखे की मार झेलता रहा और तीसरे साल जब उसने रिकॉर्ड २७६ मिलियन टन अनाज का उत्पादन किया तो मूल्य जमीन पर आ गए. इस वर्ष उस सदमें में किसानों ने फसल का रकबा भी कम कर दिया है और दलहन की फसल से फिर मुंह मोड़ लिया है. ऐसे में वायदा पूरा करना और वह भी बेहद कम समय में आसमान से तारे तोड़ने की तरह होगा. लेकिन २०१९ के आम चुनाव के मद्दे नज़र किसानों को लेकर सरकार तत्पर दीखती है. यह रिपोर्टों आजादी के पहले और स्वतंत्र भारत में बनी दर्ज़नों रिपोर्टों से काफी अलग है. अभी तक किसी रिपोर्ट ने लगातार छोटी होती जोत और तज्जनित अलाभकर खेती की समस्या पर ध्यान नहीं दिया था. समिति ने आंकड़ों के साथ बताया कि किस तरह छोटी होती प्रति किसान स्वामित्व के कारण खेती में लघु व सीमान्त किसान निवेश करने में अक्षम हो रहे थे लिहाज़ा उनकी आय लगातार घटती जा रही थी. दरअसल समिति इस समस्या के निदान के लिए एक तरह से सामूहिक विपणन की तरफ किसानों को प्रेरित करने की पुरजोर हिमायत कर रही है.

समिति ने इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए दो मोर्चों पर अलग-अलग व्यापक परिवर्तन की बात कही है. पहला कृषि उत्पादन की जगह उत्पादकता बढ़ाना याने लागत कम करना और दूसरा उन उत्पादों की ब्रिक्री के लिए अलग संस्थाएं विकसित करना. केंद्र सरकार को कृषि विपणन को समवर्ती सूची में डालने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा. दूसरा गैर-भाजपा शासित राज्य सरकारें इस परिवर्तन को अपनी अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण मान कर विरोध कर सकती हैं. हालांकि इस समय देश के १९ राज्यों में भाजपा या उसके सहयोगी पार्टियों की सरकारें हैं. आज भारत में ८६ प्रतिशत किसान लघु व सीमान्त किसान है याने उनके पास मात्र दो हेक्टेयर से कम जमीन है. खेती की नयी तकनीकि का इस्तेमाल करने और फसल पैटर्न को बदलना और नकदी फसल को ओर उन्मुख होना उनकी क्षमता के बाहर होता है. इनके उत्पादों को व्यापारियों को कम कीमतों पर आर्थिक कमजोरी के चलते तत्काल बेचना उनकी मजबूरी होती है.

समिति ने सिफारिश की है कि इस तरह के उत्पादनों का पूर्व-आंकलन और फसल कटने की बाद का आंकलन करने के बाद ऐसी व्यवस्था की जाये कि किसान को उत्पादन के अनुरूप ऋण देने की व्यवस्था हो. इसके लिखे भण्डारण इकाई की पर्ची को आधार माना जाये. ऋण मिलाने से लाभ यह होगा कि किसान वाब अपना उत्पाद तब तक किसान रोक सकता है जब तक उसे उचित मूल्य न मिले. अभी तक कृषि उत्पादों की मार्केटिंग की राष्ट्रव्यापी व्यवस्था के अभाव में किसान स्थानीय व्यपारियों को अपना अनाज बेचने को मजबूर होता था. उपज के अंतर -राज्य आवागमन पर प्रतिबन्ध के कानून को बदलना पहली जरूरत के रूप में करना होगा. राज्यों से रिपोर्ट में अपेक्षा की गयी है कि वे संचार की नयी तकनीकि का प्रयोग कर कीमतों की सूचना किसानों और उनके संगठनों से साझा करेंगे. ये संगठन गाँव के स्तर पर और उत्पादक के स्तर पर बनाये जायेंगे. समिति की यह भी अनुशंसा है कि वर्त्तमान कृषि विपणन नेटवर्क को पांच गुना विस्तार दिया जाये याने कम से कम ७००० ग्रामीण /उत्पादक स्तर के विपणन संगठन बनाये जाएँ जिनमें प्रति संगठन कम से कम १००० किसान या १००० हेक्टेयर का रकबा हो. कंपनी कानून में संशोधन करके इन कृषक संगठनों में २६ प्रतिशत शेयर की सीमा के साथ निजी भागेदारी को प्रोत्साहित किया जाये और इन संगठनों को सहकारी समितियों के अनुरूप समझा जाये. इसके साथ हीं १०,००० थोक और २०,००० ग्रामीण रिटेल बाज़ार की स्थापना करनी होगी जो वर्तमान में इसका मात्र पांचवां हिस्सा है.

समिति की एक अन्य अहम अनुशंसा के अनुसार राज्य सरकारें वर्तमान वेयरहाउसों और अनाज भंडारों को भी मार्केट के रूप में तब्दील करें ताकि ट्रांसपोर्ट खर्च बचे और साथ हीं गावों में लगने वाले साप्ताहिक बाज़ारों को जिनकी संख्या २०,००० के आस पास है प्राथमिक ग्रामीण कृषि मार्केट इकाई का दर्ज़ा दें. कुल मिलकर समिति की रिपोर्ट ने कृषि व्यवसाय की सभी कमजोरियों को पहचान कर उनके उपचार की हिकमत की है लेकिन इसके लिए राज्य सरकारों को भी अपना रवैया बदलना होगा और साथ हीं डिलीवरी में होने वाले भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश लगाना होगा. यह तभी सम्भव होगा जब लाभ पहुँचाने की प्रक्रिया में मानव भूमिका को कम करते हुए इलेक्ट्रॉनिक सूचना व आंकलन को प्रयोग में लाया जाये. देखना है कि २०१९ के आम चुनाव के पहले सरकार कितना कर पाती है.

(वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार एनके सिंह के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)