कासगंज की घटना और उस से पहले की घटनाओं को समझिए

कासगंज अपनी तरह का पहला मामला नहीं है और ना ही आखिरी होगा, उससे पहले की तमाम घटनाएं देख लीजिये और घटना के बाद सरकारों के रवैये पर गौर कीजिये।

New Delhi, Jan 28: सांप्रादायिक हिंसा की किसी घटना के बाद होनेवाली प्रतिक्रियाओं पर ठीक से गौर कीजिये, आपको समझ में आ जाएगा कि इसकी जड़े कहां हैं? हर सांप्रादायिक हिंसा इस बात पर मुहर लगाती है कि शासनतंत्र या तो नकारा है या फिर घनघोर रूप से पक्षपाती है। उसका हित इसी बात में है कि तनाव बना रहे। लेकिन जवाब सरकारों से नहीं बल्कि उन लोगो से मांगा जाता है जो हर तरह की हिंसा निंदा करते हैं और शांति के हिमायती है। कासगंज अपनी तरह का पहला मामला नहीं है और ना ही आखिरी होगा। उससे पहले की तमाम घटनाएं देख लीजिये और घटना के बाद सरकारों के रवैये पर गौर कीजिये। यह भी पता कर लीजिये कि पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाने के लिए क्या किया गया। असली मामला समझ में आ जाएगा।

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भारत जैसे भावुक और अनपढ़ समाज में एक छोटी सी बात बड़ी चिंगारी भड़का सकती है। लेकिन बिना सरकारी इच्छा के कोई भी सांप्रादायिक हिंसा ज्यादा समय तक नहीं टिक सकती। आपकी भावनाएं आहत ना हों इसलिए मैं केवल गैर-बीजेपी सरकारों के उदाहरण देता हूं। बिहार में भागलपुर का दंगा महीने भर से ज्यादा समय चला। उस समय कांग्रेस का शासन था। उसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार साढ़े चार लाख से ज्यादा वोट से हारे। हिंदू और मुसलमान किसी ने वोट नहीं दिया।

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लालू यादव सत्ता में आये। हमेशा इलीट मीडिया के निशाने पर रहे। भ्रष्टाचार के इल्जाम वगैरह अपनी जगह लेकिन उन्होने पंद्रह साल को बिहार को लगभग दंगा मुक्त रखा। दूसरी तरफ यूपी में मुलायम सिंह यादव सत्ता में रहे। लेकिन सांप्रादायिक हिंसा से निपटने के उनके तरीके हमेशा सवालों के घेरे में रहे। अखिलेश यादव के शासनकाल में दंगों के रिकॉर्ड टूटे। हिंसा महीनो चली। यह बिना नकारा या पक्षपाती सरकार के संभव नहीं है।

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योगी सरकार की नीयत इस बात से तय होगी कि वह कासगंज के सांप्रादायिक तनाव को कम करने के लिए किस तरह कीyogi adityanath कोशिशें करती है। ईमानदार सरकार वही होती है जो भावनाएं भड़काने के बदले कानूनी तरीके से दोषियों को जल्द से जल्द सजा दिलवाये। दंगे में मरने वाले हर आदमी इंसान होता है। जो समाज दंगे की मौत को फुटबॉल के स्कोर की तरह गिनता है (पक्ष में कितना और विपक्ष में कितना), वह कभी हिंसा से एकजुट होकर नहीं लड़ सकता है।

(वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ की फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)