फेसबुक पर जब करोड़ों किसानों ने मुझसे पूछा

न्यूज़ चैनल किसानों की बात नहीं करेंगे। उन्हें हर हफ्ते हिन्दू मुस्लिम टापिक चाहिए होता है, वो अब पदमावत के बाद मिल गया है।

New Delhim Jan 29: आज देर तक सोया। सपने में करोड़ों किसान मुझे ट्विट कर रहे थे। पूछ रहे थे कि मैं किसानों के मुद्दे पर क्यों चुप हूं। उधर कुछ लोग गाली दे रहे थे कि मैं सांप्रदायिक तनावों के मसले पर क्यों चुप हूं। उधर कुछ लोग ट्रोल कर रहे थे कि आप बंगाल की नौकरी की समस्या नहीं दिखा रहे, बिहार झारखंड की दिखा रहे हैं। मोदी जी को बदनाम कर रहे हैं। किसानों से कहना चाहा कि आप भारत के अब तक के सबसे असफल कृषि मंत्री से क्यों नहीं पूछते हैं खेती के बारे में। रवीश कुमार को क्यों तल्खी भरा मेसेज भेजते हैं। नौजवानों से कहना चाहा कि आप भारत के प्रधानमंत्री से क्यों नहीं पूछते हैं, अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्रियों से आप क्यों नहीं पूछते हैं कि चयन आयोग के ज़रिए उन्हें क्यों मूर्ख बनाया जा रहा है? तनावों वाले ट्रोल से कहना चाहा कि आप अपने राज्य के मुख्यमंत्री से पूछिए कि क्या हो रहा है। क्यों हो रहा है। क्यों कभी इस शहर कभी उस शहर तनाव फैल रहे हैं।

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मेरे पास कोई प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं है कि हर विभाग पर नज़र रखने के लिए मंत्री और पचास लाख कर्मचारी हों। न ही मैं अखबार हूं कि हर खबर छाप लूंगा। मैं एक पत्रकार हूं। बहुत जगह की न तो सूचना होती है और न ही हर खबर पढ़ने का वक्त। इसलिए खुद को आर्थिक खबरों तक सीमित रखता हूं। 27 दिनों तक यूनिवर्सिटी पर सीरीज़ किया। वो किसके लिए था। क्या नौजवानों आपके लिए नहीं था? एक बार यू ट्यूब पर उस सीरीज़ के वीडियो देखिए। दुनिया के टीवी के इतिहास में किसी भी चैनल पर 27 दिनों तक यूनिवर्सिटी की चर्चा नहीं हुई है। आप जब उसके एपिसोड देखेंगे कि तो पता चलेगा कि आपके साथ क्या धोखा हुआ है। धोखा अभी भी हो रहा है। मैं सपने में युवाओं से यही बहस कर रहा था। नींद से जागा तो देवेंद्र शर्मा का ट्रिब्यून में छपा लेख पढ़ा। उस लेख का कुछ सार आपके लिए पेश है।

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2016 के आर्थिक सर्वे के अनुसार भारत का किसान साल में मात्र 20,000 कमाता है। ये उसकी कमाई का औसत है। महीने का दो हज़ार भी नहीं कमाता है।2002-2003 और 2013-13 के बीच किसान की आमदनी 3.6 प्रतिशत बढ़ी है। अब 2022 तक तो आमदनी दुगनी होने से रही। इसकी जगह गांवों में दंगा दुगना कर दिया जाएगा ताकि किसान इससे पैदा होने वाली बहस में खेती करने लगे। किसान आलू के दाम मांगता है, आलू फेंकने लगता है मगर अखबारों और चैनलों के ज़रिए उस तक दंगों के टापिक पहुंचा दिया जाता है। किसान मजबूरन हिन्दू मुस्लिम टॉपिक में एडमिशन ले लेता है और सुबह शाम इसी टापिक पर बहस करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। उसकी आर्थिक असुरक्षा पर धार्मिक असुरक्षा की नकली परत चढ़ा दी जाती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ 6 प्रतिशत खेती करने वालों को मिलता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य भी लागत से अधिक नहीं होता है। बीजेपी का यह वादा ही रह गया कि लागत में पचास फीसदी जोड़ कर न्यूनतम समर्थन मूल्य देंगे। एक भी अनाज का न्यूतनम समर्थन मूल्य लागत से पचास फीसदी अधिक नहीं मिला। एक भी। ज़ीरो रिकार्ड है सरकार का इस बारे में।

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देवेंद्र शर्मा कहते हैं कि सरकार अब हर किसान परिवार को महीने का 18,000 रुपया दे वर्ना खेती का संकट खेती करने वालों को तबाह कर देगा। तेलंगाना की तरह हर किसान को प्रति एकड़ 4000 रुपये मदद राशि दी जाए। तेलंगाना में हर किसान को साल में 8000 रुपये मिलते हैं। कर्नाटक की तरह सभी दुग्ध उत्पादकों को 5 रुपये प्रति लीटर अतिरिक्त मदद राशि दी जाए। इस वक्त देश में 7600 एपीएमसी है। जबकि ज़रूरत है कि 42,000 मार्केट बनाए जाएं। 2018 के बजट में कम से कम 20,000 मंडी बनाने के प्रावधान किए जाएं। राज्य सरकारें हर उपज को ख़रीदने के लिए बाध्य हों। ख़रीद का सारा पैसा केंद्र उठाए वर्ना सब नौटंकी ही साबित होगी।  कहा जा रहा है कि इस बार के बजट में खेती पर ध्यान दिया जाएगा। चार साल से क्या ध्यान दिया जा रहा है जो हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं। इस बार और उस बार कब तक चलेगा।

ज़ाहिर है अब जो भी होगा वो किसान को चकमा देने के लिए होगा। वादे लबालब होंगे और नतीजे ठनठन। देवेंद्र शर्मा ने लिखा है कि 2014 में किसानों के 628 प्रदर्शन हुए थे। 2016 में किसानों के 4, 837 प्रदर्शन हुए हैं। 670 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह राष्ट्रीय अपराध शाखा ब्यूरो के आंकड़े हैं। आपने कितने प्रदर्शनों की तस्वीरें न्यूज़ चैनल पर देखी हैं। न्यूज़ चैनल किसानों की बात नहीं करेंगे। उन्हें हर हफ्ते हिन्दू मुस्लिम टापिक चाहिए होता है, वो अब पदमावत के बाद मिल गया है। मित्रों, हिसाब साफ है। नौजवानों की नौकरी और किसानों के दाम के सवाल को कुचलने के लिए अब ज़िलावार सांप्रदायिक तनावों की कथा रची जा रही है। आपमें से कोई गांव देहात का है तो इस पोस्ट को करोड़ों किसानों तक पहुंचा दीजिए ताकि वे दंगा आधारित बहस उत्पादन मंडी से निकल कर उस मंडी में जा सकें जहां उपज आधारित मूल्य पर बहस हो रही हो।

नौजवानों आपको मेरी चुनौती है। आप चाह कर भी इस सांप्रदायिक डिबेट के माहौल से नहीं निकल पाएंगे। आपके लिए सारे रास्ते बंद हो चुके हैं। आपके मुल्क में अक्तूबर से लेकर आधी जनवरी तक एक फिल्म को लेकर बहस हुई है। साढ़े तीन महीने बहस चली। नौकरी पर इतनी लंबी बहस हुई ? बेहतर है आप भी सैलरी की नौकरी छोड़ हिन्दू मुस्लिम डिबेट की नौकरी कर लीजिए। आपके माता पिता रोज़ शाम को टीवी पर इसी डिबेट में अपना वक्त काट रहे हैं। आप भी उनके बगल में बैठ जाओ, बिना नौकरी- सैलरी के जीवन कट जाएगा। जागों दोस्तों जागों। टीवी देखना बंद करो। केबल कनेक्शन कटवाना शुरू करो। इन झगड़ों में कोई न कोई बात सही होती है, कोई न कोई बात ग़लत होती है। इनका मकसद यही होता है कि इनसे तनाव वाले बहस पैदा की जाए ताकि आप उसमें जुट जाएं। भूल जाएं नौकरी के सवाल और उपज के दाम।

(वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के भेसपुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)