‘बड़े लोगों’ के बड़े कारनामों पर अक्सर क्यों खामोश रहने लगा है मुख्यधारा मीडिया ?

मुख्यधारा मीडिया के बड़े-बड़े सूरमा भी हतप्रभ थे कि एक अपेक्षाकृत नये न्यूज पोर्टल ने देश के दूसरे सबसे ताकतवर राजनेता के बेटे के मामले में ऐसी सनसनीखेज रिपोर्ट छापने का साहस कैसे किया?

New Delhi, Feb 24 : अब तक लग रहा था कि मुंबई स्थित कुछ बड़े मीडिया संस्थानों और न्यूज चैनलों ने नीरव मोदी और मेहुल चोकसी की कंपनियों की कई करतूतों के बारे में ठोस तथ्य उपलब्ध कराने के बावजूद ‘आदतन’ यह खबर नहीं छापी या प्रसारित नहीं की। इन दिनों ज्यादातर बड़े भारतीय मीडिया संस्थानों में ऐसी खबरें छापने का रिवाज नहीं है क्योंकि बड़े कारपोरेट घराने ही उनके सबसे बड़े विज्ञापनदाता या प्रमोटर्स हैं। इसके अलावा भी कई कारण हैं। पर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने अपने 22 फरवरी के अंक में ‘पीएनबी-नीरव घोटाले’ के बिल्कुल नये और मीडिया संस्थान के निजी हित से जुड़े एक खास आयाम का रहस्योद्घाटन करके सबको हैरान कर दिया। इससे साफ संकेत मिलता है कि कुछ बड़े अखबारों-चैनलों ने ‘ह्विसल ब्लोअर्स’ द्वारा उपलब्ध कराये ठोस तथ्यों के बावजूद पीएनबी-नीरव घोटाले का समय रहते पर्दाफाश नहीं किया तो उसके पीछे सिर्फ ‘आदत’ या ‘आलस्य’ का पहलू ही नहीं था!

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हजारों करोड़ के पंजाब नेशनल बैंक-नीरव मोदी घोटाले की पहली खबर 15 फरवरी, 2018 को सामने आई, जब बैंक ने स्वयं इसकी आधिकारिक सूचना स्टाक एक्सचेंज को दी। लगभग उसी वक्त बैंकिंग सेक्टर के घोटालों से जुड़ी एक और दिलचस्प खबर न्यूज पोर्टल्स और कुछेक अखबारों में देखने को मिली। यह खबर थी, विदेशी समाचार एजेंसी ‘रायटर्स’ के एक रिपोर्टर की। उसने आरटीआई के जरिये बैंक घोटालों की एक दिलचस्प सूचना का उद्घाटन किया। रिजर्व बैंक आफ इंडिया को उद्धृत करते हुए उसमें बताया गया कि भारतीय बैंकों में हाल के पांच वर्षों में कुल 8670 बैंक-फ्रॉड हुए हैं। इस फ्रॉड में कुल 612.6 बिलियन रूपये की राशि का नुकसान हुआ है। एक दूसरी रिपोर्ट में कहा गया है कि इस वक्त देश में हर चार घंटे पर औसतन एक बैंक-धोखाधड़ी हो रही है। इससे समझा जा सकता है कि हमारे बैंकिंग सेक्टर के नियमन और शासकीय निगरानी तंत्र का क्या कितना बुरा हाल है! लेकिन मीडिया के बारे में कौन बतायेगा? आखिर उसकी खोजी और पड़ताली टीमें कहां थीं? बड़े-बड़े न्यूज चैनलों की रहस्यभेदी नजर कहां थी, जब देश के बैंकों में इतने बड़े-बड़े घोटाले हो रहे थे?
भारतीय मीडिया, खासकर बिजनेस चैनलों-अखबारों और मुख्यधारा के बड़े मीडिया संस्थानों की पत्रकारिता पर इससे बड़ा सवाल उठता है। सिर्फ उनकी दक्षता पर ही नहीं, उनकी ईमानदारी और विश्वसनीयता पर भी! पीएनबी-नीरव बैंकिंग लेनदेन की संदिग्धता पर सन् 2013 से ही सवाल उठाये जाने लगे थे और जिसकी पहली सूचना भारत के प्रधानमंत्री कार्यालय(पीएमओ) को 26 जुलाई, सन् 2016 को मिल चुकी थी, उससे देश का इतना विशाल मीडिया-तंत्र कैसे अनजान बना रहा?

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इस बारे में कुछ ताजा रहस्योद्घाटन हुए हैं। लेकिन आर्थिक-राजनीतिक रहस्योद्घघाटनों की तरह उनकी ज्यादा चर्चा नहीं हुई क्योंकि वे मीडिया से सम्बन्धित हैं। बैंकिंग क्षेत्र के घोटालों के मीडिया कवरेज के संदर्भ में लिखे जा रहे इस आलेख में अब इसकी चर्चा करना जरूरी है। पीएनबी-नीरव घोटाले के ‘ह्लिसल-ब्लोअर्स’, जिनमें हरिप्रसाद और संतोष श्रीवास्तव जैसे कई लोग शामिल हैं, ने पिछले दिनों मीडिया के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन किया। इसमें बताया गया कि इस मामले के प्रकाशन के लिये वे मुंबई स्थित कुछ बड़े मीडिया सस्थानों में भी गये थे। प्रधानमंत्री कार्यालय को ब्योरेवार परिपत्र भेजने के बाद जब रजिस्ट्रार आफ कंपनीज से इस मामले को निरस्त कर दिया गया तो उन्होंने देश के कुछ बड़े आर्थिक और बिजनेस अखबारों और न्यूज चैनलों से भी संपर्क किया ताकि इस घोटाले का भंडाफोड़ हो सके। पर उक्त ‘ह्विसल-ब्लोअर्स’ द्वारा प्रस्तुत तथ्यात्मक दस्तावेजों की रोशनी में उन मीडिया संस्थानों के वरिष्ठ संपादकों या संवाददाताओं ने कुछ भी नहीं लिखा या कुछ भी प्रसारित नहीं किया! ऐसा क्यों हुआ, इसका जवाब अब भला कौन देगा?

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ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि देश के बड़े मीडिया संस्थान अगर बड़े उद्योगपतियों-कारपोरेट घरानों और बड़े नेताओं-नौकरशाहों के आर्थिक घपलों-घोटालों के रहस्योद्घाटन से बचेंगे या डरेंगे तो अपेक्षाकृत छोटे मीडिया मंच, न्यूज पोर्टल्स या पत्रकारों द्वारा संचालित सहकार-आधारित वेबसाइटें बड़ी ताकतों के भ्रष्टाचार, अनियमितता या कथित अपराध के पर्दाफाश का साहस कब तक दिखायेंगी? हाल के दिनों में ‘द वायर’ और ‘द कैरवान’ ने ऐसे कई बड़े मामलों के रहस्योद्घाटन का साहस दिखाया। उन दोनों के खिलाफ कई आपराधिक मुकदमे या मानहानि के बड़े-बड़े मामले ठोंके जा चुके हैं। सरकार अलग से नाराज है। आमतौर पर उनके खिलाफ ऐसे मुकदमे दूर के शहरों में ठोंके गये हैं ताकि उक्त संस्थानों के संपादक-संचालक-पत्रकार परेशान हों और उन पर भारी वित्तीय बोझ भी पड़े। एक बड़े राजनेता के व्यवसायी बेटे के मामले में कुछ समय पहले ‘द वायर’ ने एक रहस्योद्घाटक खबर लिखी। उसके प्रकाशन के साथ ही देश की सियासत और मीडिया में हड़कंप मच गया। मुख्यधारा मीडिया के बड़े-बड़े सूरमा भी हतप्रभ थे कि एक अपेक्षाकृत नये न्यूज पोर्टल ने देश के दूसरे सबसे ताकतवर राजनेता के बेटे के मामले में ऐसी सनसनीखेज रिपोर्ट छापने का साहस कैसे किया? रिपोर्ट रजिस्ट्रार आफ कंपनीज में दाखिल उक्त कंपनी के वित्तीय लेखे-जोखे में दर्ज तथ्यों पर आधारित थी। पर राजनेता-पुत्र ने इसके प्रकाशन के कुछ ही दिनों के अंदर अहमदाबाद की कोर्ट में ‘द वायर के प्रकाशकों-संपादकों और उक्त रिपोर्टर के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मामला ठोंक दिया। मानहानि के लिये मुआवजे का दावा भी 100 करोड़ का रखा। दिलचस्प बात है कि कुछ बड़े अखबारों की तरफ से भी ऐसी खबरें छापी जाने लगीं ताकि कोर्ट के बाहर भी ‘द वायर’ को घेरा जा सके। ‘द वायर’ ने पिछले साल बैंक-ठगी मामले में एक अन्य खोजपरक रिपोर्ट छापी। संयोगवश, वह भी एक हीरा व्यापारी के कारनामें की थी। उसके प्रकाशन के बाद उक्त व्यापारिक घराने ने न्यूज पोर्टल के खिलाफ कानूनी नोटिस थमाया। पिछले साल देश की जानी-मानी शोधपरक पत्रिका ‘इकोनामिक एंड पोलिटिकल वीकली’ ने देश के कुछ बड़े औद्योगिक घरानों के कुछ खास कारनामों पर तथ्यात्मक रपट छापी। तुरंत कानूनी नोटिस थमाया गया। प्रबंधन दबाव में आ गया। अंततः उन साहसिक रपटों को छापने के चलते तत्कालीन संपादक परंजय गुहा ठाकुरता को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। ‘द कैरवान’ की जज लोया की रहस्यमय मौत विषयक बहुचर्चित स्टोरी के बाद का किस्सा पूरे देश में विख्यात हो चुका है। किसी बड़े अखबार या चैनल ने उक्त स्टोरी का फॉलोअप नहीं किय़ा। इसके उलट ‘साहस की पत्रकारिता’ को अपनी पहचान बताने वाले ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे बड़े अखबार ने ‘कैरवान’ की स्टोरी को गलत साबित करने की कोशिश करते हुए एक प्रति-स्टोरी छापी, जिसमें बताने की कोशिश की गई कि जज लोया की मौत स्वाभाविक थी और उऩके कुछ परिजन जो बातें कह रहे हैं, वह सच नहीं हैं। हालांकि एक्सप्रेस ने बीते साल इंटरनेशनल कंसोर्टियम आफ इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स(आईसीआईजे) के सहकार में ‘पनामा पेपर्स’ और ‘पैराडाइज पेपर्स’ से जुड़ी कई ठोस कथाएं छापी हैं। पर हाल के दिनों में देश के शक्तिशाली सत्ताधारी गुट और उससे जुड़े खास-खास लोगों के बारे में उसका रवैया कुल मिलाकर ‘बचते-बचाते लिखने’ का दिख रहा है। ‘द कैरवान’ की स्टोरी की ‘प्रति-स्टोरी’ छापकर ‘एक्सप्रेस’ ने नाहक ही ढेर सारी बदनामी अपने नाम कर ली।

देश के मीडिया परिदृश्य का यह एक चिंताजनक पहलू है। संभव है, छोटे-मझोले मीडिया मंचों, न्यूज पोर्टल्स या पत्रिकाओं की तरफ से हुए ऐसे कुछ साहसिक पर्दाफाशों में कुछ तकनीकी चूकें हों पर उनके इरादे या मंशा पर अगर बड़े मीडिया संस्थानों की तरफ से ऐसे सवाल उठाये जायेंगे तो निस्संदेह इससे ‘निहित स्वार्थ’ की शक्तियों को ही मदद मिलेगी। बडे मीडिया समूह अगर अब भी अपने को जनतंत्र का एक जरूरी स्तम्भ मानते हैं तो फिर बड़े लोगों के बड़े ‘घोटालों’ या ‘अनियमितता’ के पर्दाफाश से वे क्यों बचना चाहते हैं?

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)