जानते हैं क्यों अटल ने कहा था झाड़े रहो कलेक्टर गंज ?

परिचय होते ही बाजपेयी जी ने पूछा कि “अच्छा झाड़े रहो कलेक्टर गंज !” मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आया कि बाजपेयी जी कहना क्या चाहते हैं?

New Delhi, Feb 25 : कई लोगों ने मुझसे अनुरोध किया है कि फ्रेज झाड़े रहो कलेक्टर गंज का मतलब बताऊँ। तो खैर सुनिए। यह मुहावरा मैं भी बोला करता था। लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह शुरू कहां से हुआ। इसलिए पूरा किस्सा सुनाता हूं। बात 1990 की है। राम मंदिर विवाद के चलते पूरा यूपी दंगे की आग में सुलग रहा था। मुझे अपने चचेरे भाई की शादी में शामिल होने के लिए कानपुर जाना था। तब नई दिल्ली स्टेशन से रात पौने बारह बजे एक ट्रेन चला करती थी प्रयागराज एक्सप्रेस। चलती वह अभी भी है लेकिन समय बदल गया है। तब नई-नई ट्रेन थी और सीधे बोर्ड द्वारा चलवाई गई थी इसलिए सुंदर भी थी और साफ-सुथरी भी। इसके थ्री टायर सेकंड क्लास में मेरा रिजर्वेशन था। और वह भी एक सिक्स बर्थ वाले कूपे में। जब गाड़ी में दाखिल हुआ तो पाया कि ट्रेन खाली है उसी दिन गोमती एक्सप्रेस में सफर कर रहा एक व्यक्ति दिन-दहाड़े काट डाला गया था क्योंकि दंगाइयों को उसने अपना नाम नहीं बताया था। गाड़ी के जिस कूपे में मेरा नंबर था उसमें मेरे अलावा पांच मौलाना थे।

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दाढ़ी और टोपी वाले। कुछ वे सहमे और कुछ मैं। मगर बाहर जाने का कोई मतलब नहीं था क्योंकि बाहर तो पूरे कोच में सन्नाटा पसरा था। सफर शुरू हुआ। न तो उन मौलानाओं को नींद आ रही थी न मुझे। शायद दोनों को ही अंदर ही अंदर डर सता रहा होगा। गाड़ी जब कानपुर पहुंचने को आई तो सहयात्रियों में से सबसे बुजुर्ग मौलाना ने मुझसे पूछा कि “बेटा आप कानपुर उतरोगे?” मैने कहा- ‘हां’, तो बोले- हमें छोटे नवाब के हाते में जाना है। और हम पाकिस्तान कराची से आए हैं। अब मुझे भी काटो तो खून नहीं। रात भर मैं अजनबी विदेशियों के बीच सफर करता रहा। लेकिन एक डर यह भी कि ये विदेशी अब अपने गंतव्य जाएंगे कैसे? पहले तो झुंझलाहट हुई और खीझ कर कहा कि ‘बड़े मियाँ इसी समय आपको इंडिया आना था।’ वे बोले- “बेटा भतीजी की शादी है इसलिए आना जरूरी था।” खैर मैने कहा कि ‘आप अकेले तो जाना नहीं और मैं भी छोटे मियाँ के हाते शायद न जा पाऊँ पर आपको पहुंचा जरूर दूंगा।’

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उतरने के बाद मैने वहां के तत्कालीन पुलिस कप्तान श्री विक्रम सिंह को बूथ से फोन किया और अनुरोध किया कि आप रेल बाजार थाने से फोर्स भेज कर इन विदेशियों को सुरक्षित पहुंचा दें। जब थाने से सिपाही स्टेशन आकर उन लोगों को ले गए तो मुझे राहत मिली और मैं अपने घर की तरफ चला। दिल्ली लौटने के बाद मैने जनसत्ता में कानपुर दंगे पर खबर लिखी और यह भी लिखा कि कैसे अराजक तत्वों ने राजनीतिक स्वार्थों के लिए उस शहर का मिजाज जहरीला बना दिया है जहां पिछले साठ वर्षों से हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ। यह अलग बात है कि मुस्लिम समुदाय के शिया-सुन्नी दंगे की खबरें जरूर पढ़ा करते थे। यह खबर लोकसभा में तब के नेता विरोधी दल अटलबिहारी बाजपेयी ने पढ़ी और उन्होंने हमारे अखबार के ब्यूरो चीफ श्री रामबहादुर राय से पूछा कि ये शंभूनाथ शुक्ल कौन हैं, मेरे पास किसी दिन भेजना।

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राय साहब के निर्देश पर मैं एक दिन बाजपेयी जी के छह रायसीना रोड आवास पर पहुंच गया। परिचय होते ही बाजपेयी जी ने पूछा कि “अच्छा झाड़े रहो कलक्टरगंज!” मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आया कि बाजपेयी जी कहना क्या चाहते हैं। मैने पूछा कि ‘इसके मायने क्या हैं.’ तब उन्होंने इस मुहावरे का बखान किया। जो यूं है- “गांधी जी के स्वदेशी आंदोलन के दौरान सबसे अधिक मार पड़ी विदेशी चीजें बेचने वाले व्यापारियों पर। ये व्यापारी अधिकतर खत्री थे। दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, पटना और कलकत्ता के व्यापारी सड़क पर आ गए। उन्हीं दिनों कानपुर में कलेक्टर गंज में आढ़तें लगनी शुरू हुईं। इसमें मारवाड़ी व्यापारी अव्वल थे। तभी आई तीसा की मंदी।

अब तो व्यापारियों का घर तक चलना मुश्किल हो गया। इसलिए रात को इन्हीं सफेदपोश व्यापारियों के घर की महिलाएं कलेक्टर गंज आतीं और आढ़त मंडी की जमीन की मिट्टी झाड़तीं तथा जो शीला निकलता उसे घर ले जातीं और तब उनका चूल्हा जलता। सबेरे सेठ जी साफ भक्क कुर्ता-धोती पहन कर बाजार आते और अनाज की दलाली करते। अब शुरू-शुरू में तो कोई जान नहीं पाया लेकिन जब सब सफेदपोशों के घर की औरतें आकर सीला बिनने लगीं तो भेद खुला और सबेरे जो भी साफ धोती-कुरता पहने दीखता अगला आदमी दाएं हाथ की तर्जनी अंगुली को अंगूठे की छोर से छुआता और फटाक से दागता- चकाचक!!! झाड़े रहो कलेक्टर गंज। यानी हमें पता है इस सफेदी की हकीकत लेकिन………..!”

(वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)