त्रिपुरा ने इस संकल्प को शक्ति दी, कि सही रणनीति से कहीं भी लगे रहें तो नतीजे बदल सकते हैं

त्रिपुरा की जीत ऐतिहासिक है, ये ठीक है लेकिन इसका बाकायदा अहसास देश को हो ऐसा माहौल पैदा करना एक अलग बात है. मोदी ने वैसा किया।

New Delhi, Mar 05 : आखिर क्यों जीत जाते हैं मोदी- मोदी की अगुआई में बीजेपी ने भारतीय राजनीति में कुछ नई चीजें जोड़ी हैं. इनसे सत्ता हासिल करने, दल या संगठन चलाने, जनसंपर्क बनाने, माहौल तैयार करने और जीत को मनाने का परंपरागत राजनीति का जो तरीका था, बदला है. इसमें भी कोई शक नहीं कि देश में राजनीतिक चेतना और चरित्र भी बदले हैं. वैसे, कुछ बातों को सिलसिलेवार रखूं तो ज्यादा अच्छा रहेगा.
१- २४ घंटे, ३६५ दिन काम: आज ये दावे से कहा जा सकता है कि मोदी सत्ता औऱ राजनीति को जीते हैं. उससे परे उनके पास न तो कोई अभियान है और ना ही आकांक्षा. मोदी बार-बार कहते हैं कि मैं बिना छुट्टी ३६५ दिन काम करता हूं और इस बात से उनके विरोधी भी असहमत नहीं दिखते. मोदी की लगन और जुझारुपन अमित शाह ने अपने अंदर पैदा कर लिए. नतीजा ये हुआ कि ये जोड़ी संघ परिवार और बीजेपी संगठन को उसी तरह सक्रिय रखती है जैसे कुम्हार के हाथ की डंडी उस चक्के को जिस पर मिट्टी से बर्तन बनते रहते हैं.
२- हर सीट, हर राज्य महत्वपूर्ण : आज से पहले हिंदुस्तान में पूर्वोत्तर के राज्यों को लेकर कितनी दिलचस्पी रहती थी, हम सबको पता है. लेकिन पहली बार मोदी ने ये बताया कि छोटे राज्यों में बड़ी कामयाबियों का जश्न देश के कोने-कोने तक कैसे पहुंचाया जाता है. त्रिपुरा की जीत ऐतिहासिक है, ये ठीक है लेकिन इसका बाकायदा अहसास देश को हो ऐसा माहौल पैदा करना एक अलग बात है. मोदी ने वैसा किया. मेघालय में कांग्रेस सरकार नहीं बना पाए और किसी तरह से वहां गैर कांग्रेसी सरकार बना दी जाए, इसकी लड़ाई में समूची बीजेपी लग गई है. पिछले साल गोवा और मणिपुर में बहुमत से थोड़ी दूर रह जानेवाली कांग्रेस को बीजेपी ने आखिरकार सत्ता से दूर कर ही दिया. मेघालय संभव है ऐसा तीसरा राज्य हो. लेकिन पते की बात ये है कि छोटे राज्य भी राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण होने लगे, ये मोदी की सोच का नतीजा है. अगर वे कहते हैं कि पिछले कई दशकों में जितने मंत्री पूर्वोत्तर के दौरे पर आए, उससे कहीं ज्यादा उनकी चार साल की सरकार में आए- तो यूं ही नहीं कहते.

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३- राजनीति का जन-जागरण : मोदी की राजनीति दिल्ली में आराम से बैठकर सरकार चलाने और फिर चुनावों के समय सक्रिय होने वाली नहीं है. वे जुलूस, जलसा, सभा, रैली, विचार, व्याख्यान सबके जरिए लोगों के संपर्क में रहना सुनिश्चित करते हैं. जनता के बीच सरकार की सक्रियता दिखे और चर्चा बनी रहे, इस प्रयोजन से गतिविधियां तय की जाती हैं. नतीजा ये है कि जो तारीखें बिना किसी जिक्र के गुजर जाया करती थीं, वे भी उत्सवधर्मी हो गई हैं. बच्चों के बोर्ड के इम्तिहान, शिक्षक दिवस, प्रधानमंत्री का दिवाली-उत्सव या विदेश दौरे, पहले ऐसे कई दिन-मौके होते थे जो अपनी औपचारिकता के साथ निभ जाते थे, मोदी ने उनमें उत्सव भरने का काम किया. उन्हें इवेंट में तब्दील कर दिया. राजनीति लोगों के बीच हमेशा रहने लगी.

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४- सत्ता की लंबी रणनीति : अब त्रिपुरा को ही लीजिए. सवा तीन साल पहले सुनील देवधर को वामपंथ के इस गढ को जीतने का जिम्मा सौंपा गया. बाद में राम मधाव और हेमंत विस्व शर्मा को लगाया गया. वहां से जिसतरह की रिपोर्ट आती रही, केंद्रीय नेतृत्व ने उसतरह की रणनीति तैयार की. नतीजा सामने है. जब गुजरात के नतीजे आए उस समय बिहार और यूपी के जिलों से सैकड़ों की तादाद में कार्यकर्ता त्रिपुरा कूच कर रहे थे. तब मेरे पास इस बात की जानकारी लगातार आ रही थी. केरल में विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद बीजेपी सक्रिय है. जन-रक्षा यात्रा काफी सफल रही और उसकी शुरुआत मुख्यमंत्री पी विजयन के जिले कुन्नूर से हो यह रणनीतिक फैसला था. आज केरल में बीजेपी और संघ दोनों जमीन पर एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए है. मोदी बार-बार केरल का जिक्र करते हैं. वह इसलिए कि वहां के साधारण कार्यकर्ता को ये पता रहे कि उसकी खबर शीर्ष नेतृत्व रखता है. कर्नाटक के साथ भी ऐसा ही है. उड़ीसा, प बंगाल जैसे राज्यों के लिये संघ और बीजेपी की टीमें दिन-रात योजनाबद्द तरीके से काम कर रही हैं. गुजरात में अगर सरकार बच गई तो इसलिए भी कि पिछले दो ढाई साल से संघ ने वनवासी कल्याण समिति के जरिए आदिवासियों में जो काम किया, उसने सीटें दिलवा दीं.

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५- सोशल मीडिया का हथियार – मोदी ने गुजरात में ही ये अंदाजा कर लिया था कि आनेवाले दिनों में सोशल मीडिया जनता तक पहुंचने का सबसे ताकतवर माध्यम होगा और तभी उन्होंने इसपर काम करना शुरु कर दिया था. आज बीजेपी में आपकी पूछ-परख इस बात से भी तय होती है कि आपके फॉलोअर्स कितने हैं और सोशल मीडिया पर आप कितने सक्रिय हैं. सरकार का एक विंडो ट्विटर हैंडल भी हो गया है. जनता का सत्ता से संवाद और सत्ता की जनता में भागीदारी का एक बेहतरीन पुल सोशल मीडिया बन चुका है. अरविंद केजरीवाल भी ऐसे नेता हैं जिनहोंने सोशल मीडिया को अनपी राजनीति का हथियार बनाया लेकिन मोदी और उनकी बीजेपी कहीं आगे दिखती है.

६ – हार के प्रतिकार का संकल्प – आज प बंगाल और केरल में बीजेपी मिशन के तौर पर लगी है. छोटे-छोटे इलाकों की जिम्मेदारी लोगों को दी गई है और उनकी रिपोर्ट तैयार होकर केंद्रीय नेतृत्व तक आती है. इन दोनों राज्यों की विधानसभा में बीजेपी ने पहले के मुकाबले काफी अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन पिटी ही रही. कोई और दल होता तो वो यही सोचता कि जहां अपना जनाधार, संगठन ही कमजोर है, वहां क्या पसीना बहाना. लेकिन मोदी और अमित शाह के साथ ऐसा नहीं है. उन्हें इस बात का यकीन रहता है कि आप पूरी ताकत और सही रणनीति से कहीं भी लगे रहें तो नतीजा बदल सकते हैं. त्रिपुरा ने इस संकल्प को और शक्ति दी है. संघ की तरफ से जो संगठन मंत्री आता है, वो पहले भी आता ही था लेकिन आज की तारीख में वो बेहद सक्रिय और अहम हो गया है. यूपी चुनावों में सुनील बंसल और त्रिपुरा में सुनील देवधर इसी कड़ी में आते हैं.

७- कम्फॉर्ट ज़ोन में बंद विपक्ष – बीजेपी औऱ मोदी की कामयाबी की एक बड़ी वजह ये भी है कि विपक्ष जिस ढर्रे और रफ्तार में पहले चलता था, वह आज भी उससे आगे जाने को तैयार नही दिखता. वह चुनावी मौके पर सारी तैयारी करता है और मेहनत करता है. उसके बाद फिर एक सुस्ती आ जाती है. सीताराम येचुरी हार के बाद झक सफेद कपड़े में पीसी की औपचारिकता के लिये आते तो हैं लेकिन संगठन को कितना समय देते हैं, सीपीएम में सबको पता है. राहुल गांधी गुजरात में कमाल की मेहनत करते हैं लेकिन पूर्वोत्तर के नतीजों से पहले नानी को देखने इटली चले जाते हैं. इस तरह के मैसेज जनता के बीच जब जाते हैं तो वह आपके बारे मे जो राय बनाती है, नतीजे उससे उलट नहीं हो सकते.

( India News के मैनेजिंग एडिटर राणा यशवंत के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)