ये बिग बाजार से बेहतर मॉडल है, किसी शॉपिंग मॉल से कम नहीं है गांव की हटिया

स्थानीय मध्यवर्ग के परिवारों के लिये हटिया का महत्व खत्म हो गया है। मगर हटिया फिर भी जिंदा है, पूरे रौनक के साथ।

New Delhi, Mar 06 : तकरीबन 25 साल बाद अपने गांव के हटिया में इस तरह घूमा होऊंगा। घुसा मडुआ खरीदने के लिये था। उम्मीद थी कि यहां मडुआ सस्ता मिल जायेगा। मडुआ तो मिला नहीं, मगर खरीद बिक्री के इतने देसज रंग मिले कि मन हैरत से भर गया। किसिम-किसिम के अनाज, शुद्ध मसाले सामने में कुटवा लीजिये, कपड़े, जूते, चप्पल, चाकू, सरौता, मिट्टी के बर्तन, घरेलू उपयोग के सामान, जड़ी बूटियों की वेराइटी, अनाज और सब्जियां तो मिलती ही हैं।

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जब गांव में रहता था तो हर बुधवार और शनिवार को इस हॉट में भेज दिया जाता था। कभी मन से नहीं आया, मन मार कर ही आता था। Hatia3क्योंकि हटिया जाने का मतलब था खेल छूट जाना और लौटते वक्त सब्जियों की भरी थैली लेकर दो किमी पैदल चलना। उंगलियां लाल हो जाती थी। पूरे रास्ते इस उम्मीद में पलट-पलट कर देखता कि कोई परिचित सायकिल वाला दिख जाए, जिसके पीछे लद जाएं।

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अब वक्त बदल गया है। धमदाहा बाजार में रोज सब्जियां मिल जाती हैं और दूसरी चीजें भी। स्थानीय मध्यवर्ग के परिवारों के लिये हटिया का महत्व खत्म हो गया है। Hatia2मगर हटिया फिर भी जिंदा है, पूरे रौनक के साथ। गरीब वर्ग के लोगों को सस्ते में एक साथ तमाम चीजें मिल जाती हैं। आप बैठकर समान चेक कीजिये, दर में मोल मोलाई कीजिये, ठीक लगे तो झोले में भर लीजिये। इसका अलग आनंद है और यह बिग बाजार से बेहतर मॉडल है। यहां एक साथ सौ से अधिक दुकानदारों की रोजी रोटी चलती है।

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बिलिंग काउंटर पर घंटों खड़े रहने की मुसीबत नहीं। यह अर्थव्यवस्था का समाजवादी मॉडल है। मगर जगह-जगह इसे ध्वस्त किया जा रहा है। Hatia1इस माहौल में अपने गांव के हटिया को जिंदा देखकर मन आह्लादित हो गया।
देर तक घूमता रहा। अपने पसन्द की चीजें खरीदता रहा। झोला भर जाने पर पैदल ही लौटा, पुराने दिनों को याद करते हुए।

(ये बिहार के धमदाहा (जिला पूर्णिया) का हटिया है, वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)