त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति गिराकर हम क्या साबित करना चाहते हैं?

ब्लादिमिर लेनिन की गिनती दुनिया के लिविंग लेजेंड में हमेशा की जाएगी. लेकिन, इतिहास इस बात को भी एक गंभीर प्रश्न के रुप में जरुर रखेगा कि वे अपने ही देश में कई तरह के राजनैतिक अतिवाद और राष्ट्रीय अस्मिता के भंजक के रुप में क्यों देखे जाने लगे?

New Delhi, Mar 07 : पिछले साल 7 नवंबर को गौरवशाली वोल्शेविक क्रांति के सौ साल का जश्न रुस में मनाया गया और मौजूदा राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन उस आयोजन से दूर थे. ऐतिहासिक लाल चौक पर जो सैन्य परेड हुई, उसका लाइव प्रसारण सरकारी टीवी पर नहीं हुआ. पूरे समारोह में जोर रुसी क्रांति की बजाय दूसरे विश्वयुद्द में सोवियत रुस की भागीदारी का जश्न मनाने पर था. आखिर ऐसा क्यों ? सोवियत संघ के 1991 में विघटन के बाद पुतिन जैसे वामपंथी नेताओं का कम्यूनिस्ट पार्टी से मोहभंग हो गया. वे रुस के विघटन के लिए कम्यूनिस्ट पार्टी को जिम्मेदार मानते हैं. ऐसी राय आज की तारीख में रुस की एक बड़ी आबादी की है. लेनिन का पार्थिव शरीर जो ममी के तौर पर मास्को में स्मारक में रखा गया है, उसको दफनाने की बातें कई दफा होती रही हैं. एक बड़ा तबका लेनिन को यूं पूजते रहने की परंपरा को खत्म करना चाहता है. ऐसे में लेनिन को समझने के लिए कुछ अहम घटनाओं पर सोचना जरुरी है. लेनिन की साम्यवादी व्यवस्था को कम पढने और कम समझने के चलते कई भ्रांतिया रही हैं और मुझे लगता है कि रहेंगी भी. फिर भी, कुछ बातें तरतीब में रखी जाएं तो शायद इस बात की गुंजाइश बने कि आप अपनी राय तैयार कर पाएं.

Advertisement

१- लेनिन एक महान क्रांतिकारी और जन-नायक थे. उनमें शोषण की व्यवस्था (जारशाही) को बदलने की ऐसी बेचैनी थी जिसने उनको सत्ता पाने के बाद भी संतोष पाने नहीं दिया. लेकिन ये वही लेनिन थे जिन्होंने सितंबर १९१८ में हुए जानलेवा हमले के बाद बड़े पैमाने पर विरोधियों की हत्याएं करवाई. इतिहास में इसे ‘रेड टेरर’ कहा जाता है. लेनिन का भरोसेमंद ट्राटस्की इस रेड टेरर अभियान का कप्तान था.
२- जिन किसान-मजदूरों के लिए जारशाही के खिलाफ लेनिन ने सफल क्रांति की, सत्ता में आकर उन्होंने उनके लिए ही भयानक हालात पैदा कर दिए. साम्यवादी अर्थव्यवस्था लागू करने के चक्कर में बड़े जोतदारों, किसानों पर जुल्म ढाए जाने लगे और ऊपर से १९२१ में भयानक अकाल पड़ गया. इस अकाल में ५० लाख लोगों की जान गई. यह लेनिन की प्रशासनिक अयोग्यता का ये बड़ा सबूत रहा.

Advertisement

३- लेनिन अपनी पार्टी को संगठन के अनुशासन में नहीं ढाल पाए. हमले के बाद लेनिन की सेहत बिगड़ने लगी और सत्ता का संघर्ष, स्टालिन-ट्राटस्की में शुुरु हो गया. १९२४ में लेनिन की मौत के बाद सत्ता पर स्टालिन ने कब्जा कर लिया. स्टालिन को इतने से चैन नहीं था और उसने सत्ता हासिल करने के १६ साल बाद मैक्सिको में पनाह ले चुके ट्राटस्की को अपने एक एजेंट के जरिए मरवा दिया. जिस जैक्सन का ट्राटस्की के घर में आना जाना था, भरोसेमंद हो चुका था वो केजीबी का एजेंट रामोन मेरसाडेर निकला.

Advertisement

४- दूसरी तरफ यह भी सही है कि लेनिन के साम्यवादी रुस में महिलाओं-मर्दोें को बराबर का वेतन और मतदान का अधिकार मिला. दुनिया में ऐसा कहीं पहली बार हुआ. स्वास्थ्य सेवाएं मुफ्त हुई और सौ फीसदी साक्षरता हासिल की गई. रवींद्रनाथ टैगोर जब १९३० में वहां गए तो कई बातों को देखकर दंग रह गए. खासकर शिक्षा को.
५- दुनिया के नौजवानों को लेनिन के साम्यवाद ने अपनी तरफ खींचा. क्यूबा में फिदेल कास्त्रो और चेग्वेरा, वियतनाम में हो ची मिन्ह, बुर्किना फासो में थॉमस संकार जैसे नौजवान, क्रांतिकारी लेनिन की अक्टूबर क्रांति से ही प्रभावित हुए थे.

६- भारत में कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना करनेवाले एम एन रॉय भी लेनिन की नीतियों की उपज थे. भगत सिंह पर लेनिन का कितना असर था इसका अंदाजा आपको उनकी बुकलेट “मैं नास्तिक क्यों हूं” पढने पर लगेगा. इसमें कोई दो राय नहीं कि लेनिन ने कई दशकों तक नौजवानों में एक बौददिक रोमांटिसिज्म को भी पैदा किया,लेकिन दूसरी तरफ यह भी उतना ही बड़ा सच है कि रुस के बाद दुनिया के जिन देशों में साम्यवाद सत्ता में आया उसने वहां बनाने से ज्यादा बिगाड़ा ही. पोलैंड, हंगरी, रोमानिया जैसे देश इसके गवाह है. चीन और क्यूबा ऐसे देश हैं जहां साम्यवाद कई तरह के दमन और दहशत का पर्याय बनकर रहा है.

मैं कभी वामपंथ का प्रशंसक नहीं रहा लेकिन यह मानता रहा हूं कि मार्क्स और एंजेल ने दुनिया को बेहतर समाज गढने का सबसे अच्छा राजनैतिक टूल दिया. हां इसके व्यवहारिक पक्ष में बहुत सारी खामिया रहीं, जिनके चलते यह बराबरी की व्यवस्था तैयार करने के नाम पर तानशाही के आसपास जाकर खड़ा दिखता रहा. भारत में संकट ये रहा कि वामपंथियों ने देश-काल-परिस्थिति के मुताबिक इसपर अमल ना करके लकीर का फकीर बने रहने को ही साम्यवाद माना. चीन से सहानुभूति रखने और रुस की सांस्कृतिक-साहित्यिक यात्राओं में लेनिन-मार्क्स को तलाशने को अपनी नीति मानते रहे . एमएन राय, अवनी मुखर्जी, डांगे, नंबूदरीपाद, ज्योति बसु जैसे धारदार नेता रहे हमारे देश में हुए लेकिन वे आज भी लेनिन में ही नायक ढूंढते हैं. बुद्धिजीवी वर्ग भी ऐसा तैयार हुआ जो धीरे-धीरे, झोला टांगने और चप्पल पहनने को फैशन के तौर पर लेने लगा. वह जमीन से कटे, बंद कमरों में सिमटते, कथित बौद्धिक विमर्श में आत्मसुख तलाशने लगा. नतीजा ये हुआ कि जनता से धीरे-धीरे पूरा वामपंथ कटता चला गया और त्रिपुरा जैसे अभेद्य माने जानेवाले गढ को बीजेपी ने पहले ही हमले में ध्वस्त कर दिया.

ऐसे में एक जरुरी सवाल भी उठता है. त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति गिराकर हम क्या साबित करना चाहते हैं? अगर इसे वामपंथ और लेनिन के खिलाफ किसी संदेश के रुप में स्थापित करने की कोशिश की जा रही है,तो यह अपने चेहरे पर तमाचा मारने जैसा ही है. यह काम बामियान में तालिबान करता है, इराक में आईएस करता है. भारत में कहां स्वीकार किया जाएगा? लेनिन ने दुनिया में एक बड़े जननायक का काम तो किया ही. उनके नक्शे कदम पर बाद में कई देश चले, यह सच तो है ही. भारत में ऐसे नायकों की जगह हमेशा से रही है. लोकतंत्र की आत्मा इस बात में बसती है कि वह विरोधी विचारों को बराबर की जगह और सम्मान देता है. अगर ये सोचकर ऐसा किया जा रहा है कि इससे किसी विचार को खत्म कर दिया जाएगा तो ये महज सनक है. अलबत्ता, इससे लोकतंत्र मारा जाएगा. नायकों का विरोध उनके प्रति सम्मान के साथ होता है, अगर ऐसा नहीं है तो फिर ये बदला है, जो किसी भी तरह सही नहीं.

( India News के मैनेजिंग एडिटर राणा यशवंत के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)