संघ चले अब नई लीक पर

आज संघ और भाजपा के समीकरण कैसे है ? नरेंद्र मोदी की सरकार भी अन्य दलों की सरकारों की तरह चल रही है।

New Delhi, Mar 08 : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा का विराट सम्मेलन नागपुर में होने जा रहा है। इस सम्मेलन में संघ के उच्च पदाधिकारियों का चयन तो होगा ही, अनेक राष्ट्रीय मुद्दों पर खुलकर विचार-विमर्श भी होगा। आज संघ को हम देश का सबसे शक्तिशाली सांस्कृतिक संगठन मान सकते हैं, खासतौर से इसलिए कि उसी की मानस-पुत्री भारतीय जनता पार्टी केंद्र में और देश के 21 राज्यों में सत्तारुढ़ है।

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लेकिन मूल प्रश्न यह है कि आज संघ और भाजपा के समीकरण कैसे है ? नरेंद्र मोदी की सरकार भी अन्य दलों की सरकारों की तरह चल रही है।rss उसमें संघ की कोई सक्रिय वैचारिक या नीतिगत भूमिका दिखाई नहीं पड़ रही है। हां, भाजपा को संघ का संगठनात्मक समर्थन ज्यों का त्यों है। सरकार अपने फैसले स्वयं करे, यह अच्छा है लेकिन संघ की भूमिका दरकिनार हो जाए, यह अच्छा नहीं है। पार्टी अपना काम करे लेकिन संघ का काम तो पार्टी से कहीं ज्यादा बड़ा है, स्थायी है और दूरगामी है।

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सरकारें आती-जाती रहती हैं और पार्टियां उठती-गिरती रहती हैं लेकिन RSS-जैसी सांस्कृतिक संस्थाओं के पास अपने तपस्वी और निस्वार्थ कार्यकर्त्ताओं के लिए ठोस और बुनियादी कार्यक्रम होने चाहिए। सुबह-सुबह शाखा लगाना, कबड्डी खेलना, ध्वज-प्रणाम करना आदि तो ठीक है लेकिन लाखों स्वयंसेवकों को समाज परिवर्तन और समाज-सुधार के कामों में जुटाना आज के समय की मांग है। हिंदुओं को संगठित करना भी यदि संघ का एकमात्र लक्ष्य है तो यह लक्ष्य भी समाज-सुधार के बिना पाया नहीं जा सकता।

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मुझे प्रसन्नता है कि RSS प्रमुख मोहन भागवत अपने भाषणों में समाज-सुधार के कई मुद्दे उठाते रहते हैं लेकिन जरुरी यह है कि इन मुद्दों को अमली जामा पहनाने के लिए वे सामूहिक संकल्प करवाएं, धरनों और प्रदर्शनों का आयोजन करें, आंदोलन करें, गिरफ्तारियां दें, अनशन करें ! कहने का अर्थ यह कि देश को हिलाएं। मुद्दे कई हैं। जैसे हस्ताक्षर स्वभाषा में करें, नशाबंदी, जातीय उपनाम हटाएं, दहेज-विरोध, अपने नाम भारतीय भाषाओं में रखें, भ्रष्टाचारियों की पोल खोलें, शाकाहार अपनाएं, हर व्यक्ति एक पेड़ लगाए, पड़ौसी राष्ट्रों का महासंघ बनाएं आदि। ये मुद्दे ऐसे हैं, जो सिर्फ हिंदुओं के लिए ही नहीं, प्रत्येक भारतीय के लिए लाभप्रद हैं और इन पर सर्वसम्मति भी हो सकती है।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)