सत्ता की बिसात पर गठजोड़ की गोटियां

अब इसे सांप-छछूंदर का मिलन कहा जाए या फिर समान विचारों का संगम। साझा सिद्धांत कहा जाए या प्राकृतिक गठजोड़ ।

New Delhi, Mar 11 : राजनीति में गठबंधन का केवल एक ही धर्म होता है-सत्ता धर्म। फिर चाहे इसे सांप-छछूंदर का मिलन कहा जाए या फिर समान विचारों का संगम। साझा सिद्धांत कहा जाए या प्राकृतिक गठजोड़ । लेकिन इसका अर्थ केवल एक ही होता है-राजनीतिक अवसरवाद। इसलिए मुस्लिम लीग की धुर विरोधी कांग्रेस ने कभी केरल में उससे गठबंधन कर लिया तो राष्ट्रवाद का दम भरने वाली बीजेपी ने पूर्वोत्तर में गंभीर आरोपों से घिरे दलों का दामन थाम लिया। संदर्भ 2019 के लोक सभा चुनाव का है, जिसके लिए सियासी जोड़-तोड़ का दौर शुरू हो चुका है। इस मामले में एसपी-बीएसपी से बेहतर मिसाल शायद ही मिले।

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ढाई दशक तक एक दूसरे की आंखों में चुभने वाले ये दल अब एक दूसरे का मरहम बन गए हैं। कहने को यह दोस्ती इसी मार्च में हो रहे उत्तर प्रदेश के लोक सभा उपचुनाव तक सीमित है, लेकिन हकीकत में 2019 से पहले का प्रयोग है। वह प्रयोग जिसमें परखा जा सके कि क्या इन दोनों के जातीय समीकरण मिल कर मोदी लहर को रोक सकते हैं? दरअसल, मार्च, 2018 का महीना 2019 के लोक सभा चुनाव के लिहाज से बेहद अहम है। जोड़-तोड़ की गोटियां बिछने लगी हैं, और सत्ता के तराजू में गठबंधनों की तौल शुरू हो चुकी है। पूर्वोत्तर खासकर त्रिपुरा के चुनाव में लाल दुर्ग के ढहने और कांग्रेस का सफाया हो जाने के बाद बीजेपी विरोधियों में एक होने की ‘‘अंतिम कोशिश’ तेज हो गई है। तीसरे मोर्चे की कवायद, सोनिया गांधी की ओर से 13 मार्च को होने जा रही ‘‘डिनर पॉलिटिक्स’ और यूपी उपचुनाव में एसपी-बीएसपी का गठजोड़ वास्तव में पूर्वोत्तर चुनाव के बाद की प्रतिक्रियाएं हैं। आंध्र प्रदेश को विशेष दरजे की मांग पर चंद्रबाबू नायडू का पैंतरा भी राजनीतिक रोटी सेंकने जैसा ही है।सच तो यह है कि कई दलों के सामने अब अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। ऐसे में वे अब भी अवसरवाद से चूक गए तो बचे-खुचे अवसर भी हाथ से निकल जाएंगे। वैसे भी, गठबंधन के अवसरवाद पर सवाल उठाने की नैतिकता किसी दल में नहीं है। सब एक ही नाव के सवार हैं।

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जम्मू-कश्मीर से नगालैंड तक बीजेपी के गठबंधन पर अवसरवाद का ठप्पा लगा है। मेघालय और त्रिपुरा में धुर विरोधी विचारों वाले दलों के साथ उसका बेमेल गठबंधन है। बिहार में नीतीश कुमार के साथ मिलकर सरकार बनाने से बड़ा अवसरवाद और क्या हो सकता है? बहरहाल, सोनिया गांधी की डिनर पॉलिटिक्स ऐसे समय में होगी जब बिहार और यूपी में उपचुनाव हो चुके होंगे। सोनिया ने ममता बनर्जी, नायडू, नवीन पटनायक जैसे नेताओं को भी बुलाया है, जो कभी न कभी एनडीए के घटक रहे हैं। यह डिनर देश में बीजेपी का विकल्प खड़ा करने की संभावनाओं को तलाशने की दिशा में एक आयोजन है। इसकी सफलता-असफलता बेमतलब नहीं होगी। 2019 में मोदी की आंधी से जूझने वाले किसी दल के लिए यह आमंतण्रस्वीकार करना या किसी की तरफ से नजरअंदाज कर देना गैर राजनीतिक फैसला नहीं होगा।न सिर्फ सोनिया की ओर से निमंतण्रबांटे गए हैं, बल्कि अंदरखाने निमंतण्रलेने वालों की खोज भी जारी है क्योंकि ऐसी परिस्थिति कांग्रेस के लिए अधिक नुकसानदेह होगी जिसमें सोनिया के निमंतण्रको कोई ठुकरा दे। इसलिए कम से कम इस न्योते से दूर रहने वालों से भी अपेक्षा रहेगी कि अवहेलना का भाव न दिखाएं।

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पार्टी की दूसरी पंक्ति के नेताओं और रणनीतिकारों ने इस पर पूरी मेहनत की है।‘‘तीसरा मोर्चा’ के लिए जो पहल चंद्रशेखर राव और असदुद्दीन ओवैसी ने की है, वह निश्चित रूप से बीजेपी के बजाय कांग्रेस के खिलाफ है। बीजेपी के विरोधी बेपरवाह हैं कि वे कांग्रेस के साथ खड़े हैं, या किसी और के साथ। उनकी बड़ी चिंता यही है कि सबसे पहले कांग्रेस से दूर दिखें। ऐसे दल बीजेपी का कमल खिलाने में मदद करेंगे। लिहाजा, तीसरा मोर्चा बनने से बीजेपी खुश ही होगी। दरअसल, तीसरा मोर्चा का मतलब ही गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी होता है। भारतीय राजनीति में जिस तरह से एकदलीय शासन बीजेपी के नेतृत्व में देशव्यापी हुआ है, उसके बाद राजनीतिक विकल्प खोजने वालों को कांग्रेस के रूप में दूसरा दुश्मन बनाने या बताने की कोई जरूरत ही नहीं दिखती। कांग्रेस तो खुद अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। हां, इस तरह से क्षेत्रीय दल जरूर सोच सकते हैं कि जो कांग्रेस खुद अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, उसके साथ जाकर उनका भविष्य कैसे ठीक रहेगा। जहां तक वामपंथी दलों का सवाल है, तो फिलहाल वे तीसरे मोर्चे की सोच के साथ चलते नहीं दिखते। राष्ट्रीय फलक पर क्षेत्रीय दलों की भूमिका कांग्रेस या बीजेपी की सहयोगी दल वाली ही रही है। हां, क्षेत्रीय स्तर पर ये दल इस आधार पर कांग्रेस या बीजेपी से दूर या नजदीक होते रहे हैं कि इससे उन्हें संबंधित राज्य में कितना फायदा या नुकसान होगा। ओडिशा में पटनायक लंबे समय तक एनडीए में बने रहे। लेकिन अब वहां संकट दूसरा है। बीस राज्यों में अपनी सरकार बना चुकी बीजेपी अब ओडिशा में ऊंची महत्वाकांक्षा रखने लगी है। इस नई परिस्थिति में पटनायक भी बीजेपी की नजर से देखें तो ‘‘अवसरवाद’ दिखा सकते हैं। मगर पटनायक जैसे नेता राजनीति की नब्ज भांपकर ही कदम उठाते हैं, यह भी सच है। जब उन्हें लगेगा कि राष्ट्रीय स्तर पर कोई मजबूत विकल्प दिख रहा है, तभी वो अपना कम्फर्ट जोन तोड़ने की सोचेंगे अन्यथा बेहतर स्थिति में तो अभी हैं ही।कई राज्य ऐसे हैं, जहां के क्षेत्रीय दल लोक सभा चुनाव में भी एक दूसरे के खिलाफ अच्छा परफॉर्म करने के लिए कांग्रेस और बीजेपी के साथ राष्ट्रीय स्तर पर खेमों में बंटते हैं। इसका मजबूत उदाहरण प. बंगाल है। यहां पहली बार ऐसा लग रहा है कि ममता बनर्जी और वाम दल, दोनों कांग्रेस के साथ आ सकते हैं, लेकिन इसके लिए भी दोनों पार्टयिों में अंदरूनी घमासान तेज रहेगा। यह आसान फैसला नहीं होगा। तमिलनाडु में कमल हासन की पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन में जुड़ सकती है, और डीएमके को साथ जोड़े रखना भी कांग्रेस के लिए जरूरी होगा। यूपी इकलौता राज्य है, जहां अगर एसपी-बीएसपी ने हाथ मिला लिया तो वे शायद ही कांग्रेस की परवाह करेंगे। राहुल-अखिलेश की व्यक्तिगत दोस्ती भी शायद यहां काम न करे क्योंकि इस दोस्ती का अच्छा-खासा नुकसान अखिलेश यूपी विधानसभा चुनाव में झेल चुके हैं। बीजेपी अब एनडीए को मजबूत करने पर पहले की तरह ध्यान देती नहीं दिख रही, जबकि उसके सत्ता में लौटने का मूल मंत्र एनडीए ही रहा है। चंद्रबाबू नायडू प्रधानमंत्री से जिस तरह दुर्व्यवहार की शिकायत कर रहे हैं, वह इसका संकेत है। यहां तक कि शिवसेना जैसी दक्षिणपंथी पार्टी भी बीजेपी के साथ सहज नहीं है। पटनायक भी असहज महसूस कर रहे हैं। ऐसा नहीं लगता कि बीजेपी 2019 के लिए विपक्षी दलों के बीच चल रही कोशिशों से अनजान हो या फिर इसकी अहमियत नहीं समझ रही हो। मध्य प्रदेश और राजस्थान में उपचुनाव गंवा चुकी बीजेपी के लिए भी यूपी के उपचुनाव बेहद अहम हैं। जीत के बावजूद उत्तर प्रदेश में उसका प्रदशर्न धमाकेदार नहीं रहा तो अपने सहयोगियों को साथ बनाए रखने के लिए उसे नई सोच के साथ सामने आना होगा। इसी नजरिए से मार्च के इस महीने पर देश की नजर है।

(चर्चित वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)