इच्छा-मृत्यु या मृत्यु की इच्छा ?

यदि पहले से उस रोगी ने अपने वसीयतनामा या मृत्युपत्र में लिख दिया हो कि उसे यह शरीर छोड़ने दिया जाए तो उसे आत्महत्या नहीं माना जाएगा। वह इच्छा-मृत्यु होगी।

New Delhi, Mar 11 : इच्छा-मृत्यु पर अब हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी पक्की मोहर लगा दी है। 2015 में उसने राजस्थान उच्च न्यायालय के उस फैसले को उलट दिया था, जिसमें जैन-संथारा या संलेखना को आत्महत्या के बराबर अपराध माना गया था। लेकिन वह फैसला सिर्फ जैन-परंपरा के बारे में था। अब यह फेसला देश के सभी नागरिकों पर लागू होगा।

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अदालत का फैसला है कि इच्छा-मृत्यु आत्महत्या नहीं है। आत्म हत्या तो आज भी अपराध है लेकिन कोई व्यक्ति यदि असाध्य रोगी है, डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया है और वह बिल्कुल मरणासन्न है और इस हालत में भी नहीं है कि अपने बारे में कुछ बोल सके या समझ सके, तब क्या करना? अदालत का कहना है कि ऐसी हालत में यदि पहले से उस रोगी ने अपने वसीयतनामा या मृत्युपत्र में लिख दिया हो कि उसे यह शरीर छोड़ने दिया जाए तो उसे आत्महत्या नहीं माना जाएगा। वह इच्छा-मृत्यु होगी। यह फैसला करने में अदालत ने कई वर्ष लगाए और पांचों जजों ने एक ही राय जाहिर की।

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ऐसे रोगी को यदि डाक्टर लोग इलाज रोककर देहांतर में मदद करते हैं तो उसे गैर-कानूनी नहीं माना जाएगा। अदालत ने ऐसे प्रावधान साथ-साथ कर दिए हैं कि जिससे इस बेहद नाजुक मामले में धोखाधड़ी की संभावनाएं बहुत कम रह जाएंगी। किसी भी रोगी की संपत्ति हड़पने या उसे अपने रास्ते से हटाने के लिए इस फैसले का इस्तेमाल आसान नहीं होगा। किसी भी व्यक्ति की इच्छा-मृत्यु के पहले उसके कानूनी दस्तावेज, डाक्टरों की कमेटी की रपट और उसके द्वारा नियुक्त उत्तराधिकारी की सहमति आवश्यक होगी।

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सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला एतिहासिक और कल्याणकारी है। अब इन अस्पतालों की ठगी पर रोक लगेगी, जो मरणासन्न मरीजों को वेंटिलेटर पर लटका कर फिजूल ही लाखों रु. का बिल बना देते हैं। इस फैसले से रोगी और उसके परिजन, दोनों को राहत मिलेगी लेकिन इस फैसले का यह अर्थ नहीं है कि कोई अच्छा-भला व्यक्ति डाक्टर के पास चला जाए और उससे कहे कि मुझे मरना है। आप मुझे गोली दे दो या सुई लगा दो।
यह इच्छा-मृत्यु नहीं, मृत्यु की इच्छा हुई। यह अपराध है। आत्म हत्या है। गैर-कानूनी है। कायरता है। इस मामले में जैन-पद्धति दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पद्धति है। आप संथारा या संलेखना कीजिए। 8-15 दिन तक अन्न-जल त्यागिए। चित्त शुद्धि होगी और शरीर स्वतः क्षीण होता चला जाएगा।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)