पिछले तीस सालों में असली विलेज की धड़कन भी ग्लोबल विलेज के साथ धड़कने लगी है

बाज़ार के इस ग्लोबल विलेज के कॉन्सेप्ट ने सबसे पहले शहर के साथ असली विलेज (गांवों) में घुसपैठ कर उसके भीतर से उसके धड़कते सामाजिक अहसासों को छीनना शुरू कर दिया।

New Delhi, Mar 12 : ग्लोबल विलेज यानी पूरी दुनिया एक गांव की तरह हो गयी है। आर्थिक उदारीकरण के बाद ग्लोबल विलेज शब्द पूरी दुनियां में पोपुलर कर दिया गया। लेकिन इसके पीछे का मक़सद सामाजिक प्राणी को बाज़ार के लिए किसी उपभोग, उत्पादन, उत्पाद, विक्रेता और उपभोक्ता में बदल देना था। बाज़ार के इस ग्लोबल विलेज के कॉन्सेप्ट ने सबसे पहले शहर के साथ असली विलेज (गांवों) में घुसपैठ कर उसके भीतर से उसके धड़कते सामाजिक अहसासों को छीनना शुरू कर दिया।

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तीन-पांच, झूठ-फ़रेब इसके हथियार बनाये गये। जो जितना बड़ा फ़रेबी, वह उतना ही बड़ा कारोबारी, जो जितना बड़ा पाखंडी, वो उतना ही बड़ा साधु-संन्यासी, मुल्ला-मौलवी । राजनीति ने इन दोनों से सम्बन्ध गांठ लिये। इस गठबंधन को अवतारवाद का जामा कॉर्पोरेट मीडिया अपनी सुविधा(लाभ-हानि) के मुताबिक पहनाता रहा, economy2क्योंकि फ़ेरब और पाखंड के कारोबार से पैसे उगाही हुई और पढ़ाई-लिखाई-सोच विचार सब ख़रीदा जाने लगा।कॉर्पोरेट मीडिया उसका एक छुपा हुआ मगर अहम हिस्सा बनता चला गया।

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यह गठबंधन अब इतना मज़बूत हो गया है कि जो अड़ गया, वो बुरी तरह पिछड़ गया, जो ढल गया, वो देखते-देखते बहुत आगे निकल गया। Economy3हालांकि पिछड़ना और आगे निकलना दोनो ही सापेक्ष होता है। लेकिन बाज़ार ने जो पैमाना गढ़ा है, उसमें पिछड़ने वालों के लिए व्यवस्था(सिस्टम) में जगह नहीं है और आगे बढ़ने वालों के लिए व्यवस्था में पिछड़ने वालों की बुनियाद में लूट की पूरी गुंजाईश बना दे रखी है। यह अर्थव्यवस्था की एक नयी वर्णव्यवस्था है।

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पिछले तीस सालों में असली विलेज की धड़कन भी ग्लोबल विलेज के साथ धड़कने लगी है। यही वजह है कि बाज़ार की सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को बेज़ार करती शक्तियों ने हमारे भीतर की समावेशी(इन्क्लुूसिव) सुंदरता को भी निचोड़कर सिट्ठी(रसविहीन) बना दिया है।हम मंचों से बार-बार महोपनिषद के श्लोक के उस हिस्से का हवाला नहीं देते थकते,जिसमें वसुधैव कुटंबकम का मंत्र है;हम क़ुरान के उस हिस्से को बार-बार दोहराते नहीं थकते कि एक इंसान की मौत भी पूरी इंसानियत की मौत है।मगर हम सिर्फ़ उन्माद में हांफते धार्मिक किताबों के उन मंत्रों या बातों के शब्द या हर्फ़ बांचते हैं,हम पूरी तरह अनदेखी कर जाते हैं कि सीरिया जैसे मुल्कों में मौत का तांडव नाचता है।ग्लोब पर पैबस्त एक देश तहस-नहस होकर सभ्यता के खंडहरों में बदल रहा है और हम यहां हर-हर महादेव और अल्ला-हू-अकबर में दम लगाने में ही अपनी पूरी संवेदना हूंक रहे हैं। भले ही एक केन्द्रीय मंत्री को शक हो कि हम (हिन्दू-मुसलमान दोनों) डार्बिन के विकासवाद के किसी क्रम में बंदरों की औलाद नहीं हों,मगर हमारी ये संवेदनहीन नज़रिया तो डार्विन के सिद्धांतों की और गहराई से छानबीन की मांग करता है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)