रियायत देते हुए पूछना चाहता हूं, कि दोषी अकेले नरेश अग्रवाल ही क्यों हैं ?

अभी बहुत से लोग जो नरेश अग्रवाल की मौज ले रहे हैं, कोई लेखक संघ के मंच पर चला गया तो पाला बदल के बोलेंगे कि अपनी बात वहां जाकर रखने में हर्ज़ ही क्‍या है?

New Delhi, Mar 14 : पहले रामविलास पासवान अपने किसिम के अकेले हुआ करते थे। अब उनके किसिम के किसिम-किसिम के लोग हैं। रीता बहुगुणा जोशी से लेकर नरेश अग्रवाल तक लंबी फेहरिस्‍त है। पिछले कुछ वर्षों में वैचारिक या राजनीतिक पालाबदल में शर्म, हया, संकोचादि का धीरे-धीरे क्षरण हुआ है। आपको क्‍या लगता है कि मामला केवल राजनीतिक महत्‍वाकांक्षा का है?

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बीजेपी को किसी भी तरह सत्‍ता प्राप्ति के लिए बेहया होने की रियायत देते हुए पूछना चाहता हूं कि दोषी नरेश अग्रवाल ही अकेले क्‍यों हैं? Naresh Agarwal2राजनीति को आईना दिखाने वाले समाज-संस्‍कृति का क्‍या हाल है? कोई नेता जब पाला बदलता है, तो उसके दिमाग में उसके समाज, समाज के वैचारिक अगुवाओं की संभावित प्रतिक्रिया और शर्मिंदगी का ख्याल क्‍यों नहीं आता? ”लोग क्‍या कहेंगे” वाली वर्जना कैसे खत्‍म होती चली गई है इस समाज में, इस पर एक बार सोचिए।

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छह-सात साल पहले तक संघ के आयोजनों में संघ-विरोधियों के आने-जाने को लेकर गरमागरम बहसें रह-रह कर उठती थीं। एक लिबरल धड़ा था जो आवाजाही के लोकतंत्र  की पैरवी करता था। कोई अगर कहता कि नहीं, संघ के मंच पर जाने से उन्‍हें वैलिडिटी मिलती है, तो उसे कट्टर और संकीर्ण माना जाता था। ध्‍यान दीजिएगा कि यह बहस बिना किसी वैचारिक निष्‍कर्ष के कोई तीन साल पहले वीरगति को प्राप्‍त हो गई। ऐसा लगा गोया लिखने-पढ़ने वाले समाज ने राजनीतिक बिरादरी को सैंक्‍शन दे दिया हो कि जहां जाना है जाओ, जो करना है करो। हो सकता है यह बात मैं अतिरंजना में कर रहा हूं। किसी को यह भी लग सकता है कि राजनीतिक बिरादरी के आगे बौद्धिक बिरादरी की क्‍या बिसात? वास्‍तव में ऐसा है नहीं। सामाजिक-सांस्‍कृतिक बहसों का फ़र्क पड़ता है। धीरे-धीरे रिस कर सब नीचे तक जाता है।

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अब बीच से या नीचे से कोई अवरोध नहीं है। अभी बहुत से लोग जो नरेश अग्रवाल की मौज ले रहे हैं, कोई लेखक संघ के मंच पर चला गया तो पाला बदल के बोलेंगे कि अपनी बात वहां जाकर रखने में हर्ज़ ही क्‍या है। ये जो उहापोह है, घटनाओं के हिसाब से प्रतिक्रिया तय करने की सेलेक्टिव और परिस्थितिजन्‍य नैतिकता है, उसने शुचिता, अखंडता और नैतिकता नाम की चिडि़या का राजनीति, समाज, संस्‍कृति में वध कर दिया है। सब अर्जुन बने पड़े हैं। सबको चिडि़या की बाईं आंख दिखती है। मौका मिला नहीं कि तीर छोड़ दिया। द्रोणाचार्यों का सहर्ष सैंक्‍शन है। पहले चिडि़या को मारो, फिर कर्म का युद्धोपदेश लेकर कुरुक्षेत्र में कूद जाओ। कुरु कुरु स्‍वाहा…।

(वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)