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कुदाल वाले केदार जी का बालू पर हवा के हस्ताक्षर सा हो जाना..चले जाना

सामने सेल्फी लेने वालों की भीड़ थी, धक्का मुक्की हो रही थी मगर मैं सिर्फ केदारनाथ सिंह को महसूस कर रहा था।

New Delhi, Mar 20 : मेरे आस-पास साहित्य के ही लोग हैं और मैं इतिहास के पास रहने वाला। उन सबको अपने प्रिय कवियों के नाम लेते कई बार देखा है। मुझे अच्छा लगता है जब कोई अपने कवि और लेखक की बात करता है। मैं भी एक कवि को चुपके चुपके बहुत सालों से प्यार करता रहा मगर किसी से कह नहीं पाया। किसी ने पूछा भी होगा तो यूं ही किसी और का नाम ले लिया होगा।
अपने मित्र कृष्ण मोहन झा के हॉस्टल के कमरे में लेटे लेटे उनके गुरु और कवि के किस्से ख़ूब सुना हूं। उन्हें देखने की ख़्वाहिश अजीब मोड़ पर ले आई। पुस्तक मेले में इश्क़ में शहर होना को लेकर कोई कार्यक्रम था। शायद बगल में केदारनाथ सिंह जी बैठे थे। मैं इतरा गया। कितने साल निकल गए अपने प्रिय कवि की सोहबत पाने के लिए। कितनी यात्राओं से होते हुए उनकी बगल की कुर्सी पर जगह मिली थी। जैसे ही मेरी तारीफ़ की, मैं भीतर तक पिघल गया। सामने सेल्फी लेने वालों की भीड़ थी। धक्का मुक्की हो रही थी मगर मैं सिर्फ केदारनाथ सिंह को महसूस कर रहा था। उनके नरम हाथों को छू कर मेरे भीतर की सारी झुंझलाहट निकल गई थी।

मुझे केदारनाथ सिंह की कविता से ज़्यादा उनके हाथ का स्पर्श याद है। जब भी मिलाया थोड़ी देर तक थामे रहा। किसी का इतना मुलायम, निर्मल और शक्तिरहित हाथ कैसे हो सकता है। किसी अच्छे कवि का ही हो सकता है। वैसे कवि का जो अपनी कविता से बहुत दूर न हो। कविता के जैसा ही हो। राजकमल प्रकाशन के अलिंद की शादी थी। वहां भी मिले। फिर वही हाथ। मैं थामे रहा। भीड़ के कोलाहल में उनकी बात याद नहीं रही मगर धीरे से कुछ अच्छा ही कहा होगा। मैं बस उन्हें अपने भीतर तक भर लेना चाहता था। मुझे उनके हाथों की नरमी आज तक याद है। केदारनाथ सिंह को बहुत प्यार किया पर न उन्हें कह पाया न उनके रहते किसी और को।

कुदाल और नमक कविता कई बार पढ़ी है। ख़ुद को कविता की तरह सरल करने के लिए। मेरे पास दो ही लौंड्री थी। अनुपम मिश्र और केदारनाथ सिंह। इन दोनों की रचनाओं में समाकर अपनी धुलाई कर लेता था। केदारनाथ सिंह की कविता सरलता की उस हद तक छू लेती है जहां से शब्दों का पहली बार मनुष्य के जीवन में पहली बार आगमन हुआ होगा। जहां शब्द नवजात अवस्था में रहे होंगे। जब भोजपुरी कविता पढ़ी तब मेरा प्यार और गहरा हो गया। मुझे नहीं पता था कि मेरा प्रिय कवि भोजपुरी का है, जिसका मैं हूं।

भोजपूरी
इसकी क्रियाएं
खेतों से आईं थीं
संज्ञाएं पगडंडियों से
बिजली की कौंध और महुए की टपक ने
इसे दी थीं अपनी ध्वनियां
शब्द मिल गए थे दोनों की तरह
जड़ों में पड़े हुए खुरपी-कुदाल के युगल-संगीत से
इसे मिले थे छन्द

भीषण ग़रीबी और संघर्ष ने भोजपुरी और उसकी मिट्टी को नफ़ासत से दूर कर दिया। फिर भीतर की सामंती सोच और समाज के भीतर की क्रूरता ने शालीनता से दूर ही रखा। इस प्रदेश से आकर केदारनाथ सिंह इतने शालीन कैसे हो गए। शायद वे भोजपुरी के उर्दू रहे होंगे।
हम भोजपुरी वाले भागते हुए लोग हैं। सिर्फ ज़मीन से ही नहीं ज़ुबान से भी पलायन कर जाते हैं। मुझे ख़ुशी है कि अपनी कविता के ज़रिए भोजपुरी को उर्दू सा मुकाम देने वाला कोई और नहीं, मेरे सबसे प्रिय कवि केदारनाथ सिंह हैं। मैं आपके रहते किसी से नहीं कह पाया, आपके बाद कहने का कोई मतलब नहीं। मेरे ननिहाल के शहर का एक प्रिंसिपल, जेएनयू का एक प्रोफेसर, बहुत से पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका एक कवि आज हमारे फुर्सत के क्षणों के लिए बहुत सारी कविताएं छोड़ गया है। अच्छे कवि हमेशा दूसरों के लिए कविता छोड़ जाते हैं। जो उनकी कविता नहीं जानते, वही उन्हें मिले हुए पुरस्कारों की गणना करते रहते हैं।

(NDTV से जुड़ें चर्चित पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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