‘सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ के लिये बड़ी आबादी को अलग धर्म घोषित करना सनातन परंपरा को नुकसान पहुंचाना है’

सनातन धर्म की खूबी ये रही है कि उसने विरोध, असहमतियों, आंदोलनों और अतिवाद तक को अपने अंदर जगह दी।

New Delhi, Mar 29 : लिंगायतों को हिंदू समाज से अलग करने के पीछे कारण चाहे राजनीतिक हों या सामाजिक लेकिन उन्हें अलग धर्म के रुप में मान लेने की कोई ठोस वजह आपको नज़र नहीं आएगी. हिंदू धर्म में पूजा औऱ मान्यता के न सिर्फ असंख्य रास्ते हैं बल्कि नास्तिकों को भी बराबर की जगह मिली है. ईश्वर को गाली देकर भी आप हिंदू धर्म के अंदर रह सकते हैं. सनातन धर्म की खूबी ये रही है कि उसने विरोध, असहमतियों, आंदोलनों और अतिवाद तक को अपने अंदर जगह दी.

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इसके चलते अलग अलग मत, पंथ, पूजा-पद्धति, दर्शन जन्मे और उनकी अविरल धारा चलती रही. शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक, स्मार्त, और संत वगैरह. शैव संप्रदाय के अंदर ही अघोर, दसनामी, नाग, महेश्वर जैसे कई पंथ हैं. ठीक वैसे ही जैसे वैष्णवों औऱ शाक्तों के बीच कई पंथ. ऊपर से संत-आंदोलन से उपजी धाराएं भी हैं. बैरागी, दास, रमानंद, वल्लभ, सखी वैगरह. इन सबको समेटे सहेजे चलनेवाली धार्मिक-संस्कृति इस देश की मूल संस्कृति रही है जिसे सनातन कहते हैं.

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12 वीं सदी में स्वामी वासवन्ना ने हिंदू धर्म के अंदर की कुप्रथाओं का विरोध किया- जाति का, अंधविश्वास का, कर्मकांड का औऱ वेदों का भी. वो इसलिए कि वे धर्मग्रंथों को ही भेदभाव और शोषण का कारण मानते थे. उनके मुताबिक इंसान-इंसान के बीच अंतर योग्यता, ज्ञान के आधार पर होना चाहिए ना कि जाति औऱ वर्ण के आधार पर. लिंगायत साहित्य जिसे वचन साहित्य भी कहते हैं, पिछले कई दिनों से पढ रहा हूं और ये समझने की कोशिश कर रहा हूं कि अलग धर्म की व्यवस्था वासवन्ना ने कहां की है? ईश्वर में विश्वास है, शिव में आस्था है, बच्चे की इष्टलिंग-दीक्षा का संस्कार है,समता का सिद्दांत है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे आप अळग धार्मिक मान्यता के रुप में स्थापित कर सकें. दरअसल देश में संत आंदोलन शुरु हुआ, उसने हिंदू समाज की कुरीतियों-कुप्रथाओं के खिलाफ हाशिए पर खड़े बहुसंख्यक समाज को जोड़ने का काम किया. इसमें कर्मकांड, मूर्तिपूजा, वर्ण-व्यवस्था, जाति-प्रथा, स्त्रियों से भेदभाव, छुआछूत का पुरोजर विरोध रहा.

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वासवन्ना ने भी ऐसा ही आंदोलन खड़ा किया. उस समय कर्नाटक की तमाम जातियों के लोग उस आंदोलन का हिस्सा बने. लेकिन धीरे धीरे जातिवाद के विरोध में खड़ी हुई जमात खुद एक जाति में तब्दील हो गई औऱ उन तमाम रुढियों के साथ जो वासवन्ना से पहले भी थीं. आज लिंगायतों के अंदर 99 जातियां है औऱ भेद भी उतने ही हैं. जाति के रुप में रुढ हो चुकी एक संत-मान्यता जीवन जीने का थोड़ा अलग विधान तो तैयार करती है लेकिन अलग धर्म का कोई मंच तैयार नहीं करती. कर्नाटक में सबसे ज्यादा जिस जाति की आबादी है वे लिंगायत ही हैं. प्रभावशाली औऱ धर्म-परंपरा से जुड़ी हुई जाति. इसका अलग धर्म के रुप में खड़ा होना राजनीतिक रुप से बीजेपी के लिये नुकसान का सौदा है औऱ कांग्रेस के लिये फायदे का. मगर सिर्फ राजनीतिक स्वार्थों के चलते एक बड़ी आबादी को अलग धर्म के रुप में मान्यता देना इस देश की सनातन परंपरा (मैं इसको जीवन शैली और संस्कार के रुप में ही देखता हूं, मन पूजा-पाठ, धर्म-कर्म में कम रमता है) को नुकसान पहुंचाने जैसा है. नासमझी है. कभी लंबी चर्चा भी होगी.

(India News के प्रबंध संपादक राणा यशवंत के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)