आप जिन्हें खच्चरों पर ढोकर लाये, हमने उन्हें लाइब्रेरी में रख दिया और निश्चिंत हो गये

ऐसे हजारों अधिक ग्रंथों को 1929-38 के बीच अपनी चार यात्राओं में महापंडित राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से लेकर आये थे. 80 खच्चरों पर ढोकर, चोरी छिपे।

New Delhi, Apr 10 : नीचे पहली तसवीर में जिस दुर्लभ ग्रंथ को देख रहे हैं वह सोने और चांदी के पानी से तैयार तिब्बती ग्रंथ है. ऐसे हजारों अधिक ग्रंथों को 1929-38 के बीच अपनी चार यात्राओं में महापंडित राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से लेकर आये थे. 80 खच्चरों पर ढोकर, चोरी छिपे. इसके अलावा कई ग्रंथों को जिन्हें लाने की इजाजत नहीं मिली या परेशानी थी उनकी उन्होंने फिल्म बनवा ली थी. ये संस्कृत के ग्रंथ थे. ऐसे दस हजार से अधिक ग्रंथ उन्होंने पटना की बिहार रिसर्च सोसाइटी को सौंप दिये, जहां उनके मित्र काशी प्रसाद जायसवाल देश के जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वविद सक्रिय थे. आज इन ग्रंथों को बीसवीं सदी की दुनिया की सर्वश्रेठ धरोहरों में से एक माना जाता है.

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ये ग्रंथ बौद्धों द्वारा दुनिया के बीच बांटे गये ज्ञान की निशानियां हैं. क्योंकि यह ज्ञान आज हमारे पास तो नहीं बचा है. लाखों किताबें बख्तियार खिलजी ने जला दी. हजारों किताबें हमने भी बरबाद कर दी. यह तिब्बत ही था, जहां ज्ञान की यह धरोहर बची हुई थी. इन्हें भारतीय बौद्ध भिक्खु ही नालंदा और विक्रमशिला से लेकर गये थे. भारतीय भाषाओं में रचे इन ग्रंथों का फिर वहां तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ. कहते हैं यह काम सातवीं सदी से लेकर 12वीं सदी तक हुआ. इस पूरे काम को और बौद्ध धर्म के ज्ञान के इस अथाह भंडार को फिर से भारत की भूमि में लाने का यह महान का इस अकेले व्यक्ति ने किया. तमाम खतरों का सामना करते हुए. क्योंकि उस दौरान सीमा पर कड़ी चौकसी हुआ करती थी. मकसद यह था कि ज्ञान का यह भंडार फिर से भारत की भूमि में रोशनी फैला सके. मगर…

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आज अस्सी साल बाद भी ये किताबें लगभग ज्यों की त्यों पड़ी हैं. हां, इन्हें ठीक से रखा गया है, इनका डिजिटलाइजेशन भी हो चुका है. मगर यह ज्ञान बिहार रिसर्च सोसाइटी के एक कमरे में कैद है और जमानतदार का इंतजार कर रहा है. अभी इनका अनुवाद, संपादन और प्रकाशन होना है. मगर सुस्त रफ्तारी इस कदर है कि 80 सालों में तकरीबन दस किताबें छपी हैं. इनमें से तीन जापान की एक संस्था के सहयोग से, जिसकी कीमत सवा लाख रुपये रखी है. कुछ और किताबें केपी जायसवाल इंस्टीच्यूट से और कुछ बिहार रिसर्च सोसाइटी से छपी है. मगर न इनके बेचने की व्यवस्था है, न ही इसके तलबगार.
सारनाथ स्थित सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ बुद्धिस्ट स्टडीज इनके अनुवाद औऱ प्रकाशन की बात करता है, वह इसके लिए बिहार रिसर्च सोसाइटी को प्रस्ताव भी भेजता है. पिछले दिनों भी इस संबंध में एमओयू का प्रस्ताव आया था, मगर बिहार सरकार ने इजाजत नहीं दी, क्योंकि अभी बिहार में सबसे बड़ा काम पटना म्यूजियम की दुर्लभ प्रतिमाओं को बिहार म्यूजियम में पहुंचाना है. बांकी फालतू काम हैं. इसलिए यहां से कहा गया कि बाद में देखेंगे.

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हालांकि सारनाथ में भी इस काम में काफी वक्त लगने वाला है. पहले संस्कृत के ग्रंथों का प्रकाशन होगा. फिर तिब्बती ग्रंथों का अनुवाद, संपादन और प्रकाशन. कहा जा रहा है कि इसमें लबा वक्त लगेगा. इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए जितने अनुवादकों की जरूरत है, वह हमारे पास नहीं है और शायद फंड की भी कमी होगी.
आज इस मसले पर लिखते हुए यह ख्याल आता है कि कैसे फंड, प्रोजेक्ट, प्राथमिकता और लोगों के अभाव में इतने महत्वपूर्ण काम टलते रहते हैं, मगर राहुल जैसा एक जुनूनी घुमक्कड़ हो तो खच्चरों पर ढोकर आठ सौ साल पहले खो चुकी हमारी ज्ञान परंपराओं तो ढूंढ लाता है. नमन आपको.

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)