सड़क पर संसद, जिम्मेदार कौन ?

संसद के बजट सत्र में बाधाओं के बंडल ने चिंता और सवाल खड़े कर दिए हैं। चिंता और दर्द की यह झलक भाजपा के देशव्यापी उपवास में साफ दिखती है।

New Delhi, Apr 15 : लोकतंत्र में सड़कों की समस्याएं भी संसद में हल होती हैं। लेकिन इस बार संसद की समस्या को लेकर सांसदों को सड़क पर उतरना पड़ा। यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री को उपवास रख कर संसद में हुए हंगामे का विरोध करना पड़ा। पूरे बजट सत्र के दौरान कई जरूरी विधेयक या तो पास ही नहीं हुए या फिर बिना र्चचा के ही पारित कर दिए गए। इस दौरान जो समय नष्ट हुआ, उसमें सैकड़ों करोड़ रु पये स्वाहा हो गए। संसद के बजट सत्र में बाधाओं के बंडल ने चिंता और सवाल खड़े कर दिए हैं। चिंता और दर्द की यह झलक भाजपा के देशव्यापी उपवास में साफ दिखती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के मंत्रियों, सांसदों और अन्य नेताओं ने बजट सत्र के दौरान कामकाज ठप करने के विरोध में देश के अलग-अलग हिस्सों में धरने और उपवास का आयोजन किया।

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सत्ता पक्ष ने इस व्यवधान के लिए विपक्ष खासकर कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया है। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में यह अपनी किस्म की अनोखी घटना है कि संसद सत्र को लेकर सत्ता पक्ष को सड़कों पर उतरना पड़ा हो। एक शर्मनाक अध्याय है यह। 23 दिन के बजट सत्र के दौरान लोक सभा में 4 फीसद और राज्य सभा में 8 फीसद काम हुआ। लोक सभा में 28 विधेयक और राज्य सभा में 39 विधेयक पेश किए जाने थे। मगर सदन चल नहीं सकी जिसके कारण विधेयक अटके रह गए। सत्ता और विपक्ष इसका ठीकरा एक दूसरे के सिर पर फोड़ रहे हैं। दोनों में कोई भी पक्ष यह मानने को तैयार नहीं है कि सदन में हंगामे और बार-बार के स्थगन के लिए वह जिम्मेदार है, बल्कि इसे लेकर भी अपना पल्ला झाड़ कर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश हो रही है।छोटे-छोटे मुद्दों पर बड़े हंगामों के अलावा कामकाज ठप होने को लेकर भी कम हंगामा नहीं हुआ। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि बीजेपी सांसदों ने सत्र के दौरान बर्बाद होने वाले समय का दैनिक भत्ता छोड़ दिया। इस तरह हर सदस्य को करीब 80 हजार रु पये तक का नुकसान हुआ। लेकिन कुल मिला कर संसद का जो समय हंगामे की भेंट चढ़ गया, उसने देश का सैकड़ों करोड़ रु पये का नुकसान कर दिया। मोदी सरकार का यह आखिरी बजट सत्र था। इसलिए बीजेपी के लिए इसे झटका ही माना जाएगा। पांच मार्च से शुरू हुए दूसरे चरण में लोक सभा में 127 घंटे 45 मिनट और राज्य सभा में कुल 124 घंटे का समय नष्ट हो गया। बजट सत्र का पहला चरण 29 जनवरी से 9 फरवरी तक चला था।

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दूसरे चरण में कांग्रेस समेत अन्य दलों खासकर क्षेत्रीय दलों के हंगामे के चलते लोक सभा की उत्पादकता महज 4 फीसद रही जबकि राज्य सभा की उत्पादकता 8 फीसद रही। इस तरह कुल मिलाकर बजट सत्र में लोक सभा की उत्पादकता 23 प्रतिशत और राज्य सभा की उत्पादकता 28 फीसद रही। बीजेपी संसद में हुए इस नुकसान की भरपाई सड़क पर उतर कर करना चाहती है। वह चाहती है कि जो कुर्बानी उसने दी है, उसे देश जाने। इसलिए पार्टी सांसदों ने उपवास रखा और धरना दिया।आम तौर पर जनप्रतिनिधियों की ‘‘सड़क से लेकर संसद तक’ अपनी आवाज बुलंद करने की परंपरा रही है। मगर बीजेपी अपनी आवाज संसद से सड़क तक ले आई है। पहले उदाहरण में आवाज जनता हुआ करती थी, जबकि दूसरे उदाहरण में आवाज जनता को सुनाई जा रही है। इसी मायने में पीएम मोदी के नेतृत्व में यह उपवास अनूठा प्रयोग है।सवाल यह है कि सदन नहीं चलने को लेकर जो गंभीरता सत्र के बीत जाने के बाद सत्ताधारी दल ने दिखलाई है, वही गंभीरता वह सदन चलते हुए भी दिखा सकती थी। जहां तक विपक्ष का सवाल है, तो वह तब भी बेफिक्र था, आज भी बेफिक्र दिख रहा है। अलबत्ता, जयराम रमेश जैसे नेता जरूर हालात को लेकर व्यक्तिगत स्तर पर चिन्तित दिखे और उन्होंने उपराष्ट्रपति को पत्र लिखकर राज्य सभा के लिए विशेष सत्र बुलाने की मांग भी रखी।बजट सत्र का चलना और उसमें विधायी कायरे का निपटारा जिम्मेदारी से जुड़ा मामला है। इस पर सदन को गंभीर रहना चाहिए और यह जिम्मेदारी सत्ता और विपक्ष, दोनों की होती है। मगर एक बात विचारणीय है कि कांग्रेस भी लंबे समय तक सत्ता में रही है, और बीजेपी का भी यह छोटा-बड़ा तीसरा कार्यकाल है। सारे दल कभी न कभी यूपीए या एनडीए में रहते हुए सत्ता का हिस्सा जरूर रहे हैं। फिर, भूमिका बदलने पर रवैये में फर्क क्यों आ जाता है? यहां इस बात की र्चचा जरूरी है कि 2011 में भी एक पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ चुका है, जिसमें कोई कामकाज नहीं हुआ था। तब बीजेपी विपक्ष में थी।सवाल यही है कि बीजेपी जितनी जिम्मेदार आज दिख रही है, विपक्ष में रहते हुए वह इतनी जिम्मेदारी का अहसास क्यों नहीं करती थी? दूसरी तरफ, कांग्रेस आज उतनी जिम्मेदार क्यों नहीं दिखती, जितनी जिम्मेदार वह यूपीए सरकार चलाते हुए दिखती थी? यानी विपक्ष में कोई भी दल हो, सदन में काम के बजाय हंगामा ही उसकी प्राथमिकता क्यों बन जाता है?संसद में अपनी बात रखने के लिए स्पष्ट नियम हैं। इनका चयन किया जा सकता है। हंगामा रोका जा सकता है।

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प्राथमिकता संसद चलने की होनी चाहिए क्योंकि संसद के कामकाज पर हर दिन औसतन 19 करोड़ रु पये का खर्च आता है। इसके बावजूद हंगामा नहीं थमता। सदन को चलाना सत्ताधारी दल का दायित्व होता है और कार्यवाही में बाधा डालने वालों को सदन से बाहर करने का विकल्प भी उसके पास होता है, लेकिन इसे टाला गया।कांग्रेस को भी अपनी भूमिका इस रूप में निभानी चाहिए थी कि वह देश की सबसे पुरानी और देश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी है। इस रूप में भूमिका निभा पाने में कांग्रेस विफल रही, यह कहने में संकोच नहीं किया जा सकता। यहां तक कि बार-बार कोशिशों के बावजूद अविास प्रस्ताव तक नहीं लाया जा सका। और अब, जबकि सत्र खत्म हो चुका है, तो सत्ता पक्ष और विपक्ष संसद को ठप करने को लेकर एक दूसरे पर आरोप मढ़ रहे हैं।कहा जा सकता है कि संसद का सत्र चलाने को लेकर कोई फैसला सड़क पर नहीं हो सकता। यह फैसला सदन के भीतर ही होगा। वहीं सारे दलों को मिल बैठकर इसके लिए रास्ते निकालने होंगे। र्चचा से बचने की नीति को राजनीति नहीं कहा जाना चाहिए। इसे परंपरा बनने से रोकना होगा। इस विषय पर उपवास रखने की स्थिति पैदा नहीं होनी चाहिए। सदन नहीं चल पाने के लिए प्रधानमंत्री उपवास करें, यह नौबत ही नहीं आनी चाहिए।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)