‘आप हमेशा के लिए सदर क्यों नहीं बन जाते, कहां ये चुनाव-वुनाव का चोचला करते हैं’ ?

कर्नाटक का एक नागरिक खड़ा किया जो ऐसा सवाल पूछे कि उसका जवाब देकर नाराज़ लिंगायतों को पटा कर पार्टी के लिए अगले चुनाव के लिए वोट पड़वाए जा सकें।

New Delhi, Apr 19 : परिधानमंत्री जी और सेंसलेस बोर्ड का चेयरमैन लंदन में डेट पर हैं। उनकी हर मुस्कुराहट पर कवि निसार हो चुका है। उनके हर शब्द पर वो बिछा जा रहा है। मैं डर रहा हूं कि कहीं किसी मिनट में हमारा कवि घुटनों पर बैठकर उन्हें प्रोपोज़ ना कर डाले। कह ही ना दे कि आप हमेशा के लिए सदर क्यों नहीं बन जाते, कहां ये चुनाव-वुनाव का चोचला करते हैं।
और अचरज है कि मेरा इतना सोचना भर था कि कवि ने केंचुली बदली और भाट बन गया। उसने एक प्यारी सी कविता कही जिसमें अभ्यस्त और आश्वस्त की बढ़िया सी तुकबंदी थी। मुझे सालों पहले पढ़ी रासो याद आ गई। किसने कहा कि अब रासो नहीं लिखे जाते। वो लिखे जाते हैं, बस साइज़ में छोटे हैं और लंदन में पढ़े जाते हैं।

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देव मुस्कुराए। उन्हें मालूम है कि नर्वसनेस में कवि वो चालीसा नहीं पढ़ सका जो उसने तब लिखी थी जब उसे सेंसलेस बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया था। वैसे कवि जो अब भाट बन चुका था, उसे भी इस बात का आभास है कि अखबारों और टीवी से भरे देश में किसी पत्रकार को ना चुनकर सात समंदर पार उससे सवाल क्यों कराए जा रहे हैं। आखिर वो विज्ञापन जगत का धुरंधर है। वो जानता है कि क्या कह कर क्या बेचा जाता है। आत्मविश्वास के साथ अभिनेताओँ से झूठ बुलवाकर उसने बहुत प्रोडक्ट बेचे हैं। अब वो खुद प्रोडक्ट है और बिक भी बढ़िया रहा है लेकिन आज रात उसके ऊपर परफॉरमेंस का दबाव है। उसे अहसास है कि हर जवाब के शुरू, बीच और बाद में वाह-वाह करना ही नहीं है बल्कि चेहरे से दिखाना भी है। उसने सैकड़ों लोगों के बीच दो लोगों को सवाल पूछने के लिए उठाया जिनके नाम उसे पहले ही दे दिए गए थे। एक विदेशी, जो ओबामाकेयर को ‘उनकी’ नीति के समतुल्य बताकर लोगों के दिमाग में स्थापित कर रहा है कि तुम्हारा नेता एंवेई नहीं है बल्कि ओबामा टाइप इंटरनेशनल लीडर है और फिर कर्नाटक का एक नागरिक खड़ा किया जो ऐसा सवाल पूछे कि उसका जवाब देकर नाराज़ लिंगायतों को पटा कर पार्टी के लिए अगले चुनाव के लिए वोट पड़वाए जा सकें।

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इस बीच एक छोटी सी फिल्म भी दिखाई गई। उसे देखकर आपको लगेगा कि देश में सब खुश हैं। बिल्कुल ऐसा फील हुआ जैसा टीवी पर डोमिनोज़ और कोक के एड बार-बार देखकर फील होता है कि देश में अब सभी लोग पिज्ज़ा और कोल्ड ड्रिंक ही खाते पीते हैं। उस मिनट भर की फिल्म का कहना था कि अब हर आदमी स्किल्ड है। सबको रोज़गार मिल गया है। किसान को उचित दाम मिलने लगे हैं। फसल खराब हो जाए तो फटाफट मुआवज़ा मिल जाता है। उस फिल्म को देखकर मुझे अब ‘उन’ पर तरस आने लगा है। एक सेकेंड के लिए मुझे महसूस हुआ कि कोई आदमी अगर अपने चारों तरफ झूठ रचने की छूट दे दे तो एक वक्त बाद वो खुद ही उसे सच मानने लगता है।

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हर दिन अगर उनके दरबारी यही सूचना देते होंगे कि हुज़ूर रियाया बड़ी खुश है तो कहां इस आदमी को पता चलता होगा कि हालात वाकई क्या हैं। ये वो ज़माना भी तो नहीं कि रात को रूप बदलकर राजा प्रजा के बीच घूम आए। रात को घूम आए तो आज रात भी एटीएम के बाहर लाइन लगाए खड़े लोग दिख जाते।
जिस लंदन में बैठकर वो भाट के मुंह से ‘आप में एक फकीरी तो है’ वाली बात पर मुस्कुरा रहे थे वहां से वो विजय माल–लिया बहुत दूर नहीं रहता जो कई-कई बैंकों को फकीर बना गया।
इन आत्मप्रशंसाओं को करने के लिए जितनी बेशर्मी चाहिए, उतनी ही सुनने के लिए भी चाहिए। उनकी बेशर्मी बेहद है वो बोलते रहेंगे, मेरी सीमित है मैं अधूरा सुनकर बंद कर रहा हूं.

(नितिन ठाकुर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)