न्याय और जांच-तंत्र पर बढ़ता अविश्वास हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं !

न्यायतंत्र पर भी सवाल उठाये जाने लगे हैं। और ऐसे सवाल सिर्फ बाहर से नहीं, अंदर से भी उठ रहे हैं। न्यायाधीश स्वयं ही सहकर्मी न्यायाधीशों पर सवाल उठा रहे हैं।

New Delhi, Apr 20 : यह हमारे देश और लोकतंत्र के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। न्याय और जांच की संस्थाओं पर समाज के एक हिस्से में लगातार अविश्वास बढ़ रहा है। इसका सार्वजनिक मंचों से भी इजहार किया जा रहा है। एक विकासशील लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छी बात नहीं है। जांच एजेंसियों पर तो लगातार सवाल उठ रहे हैं। जमाने से सीबीआई को ‘सरकार का तोता’ कहा जा रहा है। एनआईए के गठन के ज्यादा वक्त नहीं हुए पर उसकी विश्वसनीयता तो बहुत जल्दी ही सवालों के घेरे में आ गई। उसके कामकाज, नियुक्तियों और अदालतों में साक्ष्य रखने की उसकी कार्यशैली पर हर तरफ से सवाल उठाये जा रहे हैं। न्यायतंत्र पर भी सवाल उठाये जाने लगे हैं। और ऐसे सवाल सिर्फ बाहर से नहीं, अंदर से भी उठ रहे हैं। न्यायाधीश स्वयं ही सहकर्मी न्यायाधीशों पर सवाल उठा रहे हैं। यह सब अंदर नहीं, सार्वजनिक मंचों पर हो रहा है। क्या यह सब हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की गिरती साख के लक्षण हैं या हमारी संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है?

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हाल की घटना देखेंः जज लोया की रहस्यमय मौत की स्वतंत्र जांच की मांग करने वाली याचिकाओं को ‘स्कैंडलस’ और न्यायपालिका की अवमानना बताकर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को खारिज कर दिया। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यों की खंड पीठ ने यह फैसला सुनाया। लेकिन इसके तुरंत बाद इन याचिकाओं के पक्ष में दलील देने वाले देश के प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण ने उक्त फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इस दुर्भाग्यपूर्ण फैसले के आधार या तर्क बहुत कमजोर हैं। मुंबई के जिन जजों और न्यायाधीशों के कथित बयान के आधार पर कोर्ट ने स्वतंत्र जांच की मांग की अपील ठुकराई है, उनके बयान का कोई हलफनामा तक कोर्ट के समक्ष नहीं आया था। काफी दिनों से जज लोया के मामले में न्यायिक क्षेत्र में तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे थे क्योंकि इस केस का सम्बन्ध देश की ताकतवर राजनीतिक शख्सियत से था।

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हाल में एनआईए स्पेशल कोर्ट द्वारा हैदराबाद की मक्का मस्जिद विस्फोट कांड केसभी अभियुक्तों को साक्ष्य के अभाव में रिहा करने के फैसले पर भी उठाये गये। दिलचस्प बात है कि इस विस्फोट कांड के मुख्य अभियुक्त असीमानंद ने तो अपना जुर्म कबूल भी लिया था। पिछले दस साल से यह मुकदमा चल रहा था। कोर्ट ने असीमानंद और अन्य अभियुक्तों को रिहा करते हुए कहा कि उनके पास एनआईए की तरफ से साक्ष्य ही नहीं पेश किये गये। फैसले के कुछ ही समय बाद कोर्ट के माननीय जज रवीन्दर रेड्डी ने अपने पद से इस्तीफा भी दे दिया। हालांकि अपने इस्तीफे को उन्होंने बिल्कुल निजी फैसला बताया और कहा कि इस का उक्त केस या फैसले से कोई सम्बन्ध नहीं है।

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कुछ ही महीने पहले की बात है, सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने न्यायमूर्ति दीपक मिश्र की खुलेआम आलोचना की थी और कहा था कि उनकी कार्यशैली से न्याय प्रक्रिया को गंभीर नुकसान हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एम बी लोकुर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने दिल्ली में बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस की। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा कोर्ट के कामकाज और न्याय प्रक्रिया को लेकर सार्वजनिक मंच से सवाल उठाये जाने की स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली घटना थी। उल्लेखनीय है कि जज लोया की रहस्यमय मौत की जांच सम्बन्धी याचिका का मामला भी तब चर्चा में था।

सुप्रीम कोर्ट में दो नये न्यायाधीशों की नियुक्ति के कोलिजिय़म के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ने अब तक कोई फैसला नहीं लिया। सुप्रीम कोर्ट कोलिजियम ने कुछ महीने पहले दो न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नाम प्रस्तावित किया था। ये नाम थेः उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीश के एम जोसेफ और वरिष्ठ अधिवक्ता इंदु मल्होत्रा। उल्लेखनीय है कि सन् 2016 में न्यायमूर्ति जोसेफ ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को असंवैधानिक करार देकर खारिज किया था। इससे केंद्र सरकार और भाजपा की भारी फजीहत हुई थी। राजनीतिक गलियारे की चर्चाओं के मुताबिक केद्र ने कोलिजियम की सिफारिश को अब तक अपनी हरी झंडी नहीं दिखाई तो इसकी बड़ी वजह न्यायमूर्ति जोसेफ का नाम है। दूसरे नाम को लेकर कोई आपत्ति नहीं है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ न्यायाधीश के जोसेफ ने कोलिजियम की सिफारिश को इतने वक्त तक नजरंदाज किये जाने पर टिप्पणी की थी।

न्यायतंत्र, खासकर देश की सबसे बड़ी अदालत-सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश और कुछ वरिष्ठ न्यायाधीशों के बीच के असहज रिश्तों और न्याय प्रक्रिया पर उसके संभावित असर पर एक प्रमुख अखबार को दिये इंटरव्यू में देश के जाने-माने न्यायविद् फली नरीमन ने पिछले दिनों कहा: सन् 1972 से वह सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते आ रहे हैं, 32 मुख्य न्यायाधीॆशों का दौर देखा। पर ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं देखी। उन्होंने चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के सार्वजनिक होकर बोलने, खासकर प्रेस कांफ्रेंस करने को भी गैर-वाजिब ठहराया। उनका कहना था कि वो सारी बातें वे अपने दायरे में ही रख सकते थे।’ नरीमन जैसे प्रतिष्ठित न्यायविद् की टिप्पणी से भी जाहिर होता है कि इस वक्त देश की न्यायिक व्यवस्था में उच्च स्तर पर भी सबकुछ सहज नहीं चल रहा है। निस्संदेह, हमारे लोकतंत्र के लिए यह शुभ नहीं है!

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)