डे- नाइट टेस्ट : हिंदी के पत्रकार ने यह अवधारणा रखी थी न इसलिए भाव नहीं मिला

हिन्दी खोपड़ी से निकली सोच उन्हें भाती ही नहीं. उन्हें तो विष का पेड़ समझ में आती है हिंदी जबकि वे अंगरेजी के प्वायजन ट्री के फल रोज खाते हैं।

New Delhi, Apr 23 : इसी तारीख यानी 22 अप्रैल 2016 की सुबह अखबारों में जब यह समाचार पढ़ा कि आगामी अक्तूबर में न्यूजीलैंड के साथ सिरीज के दौरान दिवा- रात्रि टेस्ट मैच खेला जाएगा तब मैं लौट गया अतीत में जब मैने एक संगोष्ठी के दौरान दिग्गजों के सम्मुख इस अवधारणा की प्रस्तुति ही नहीं की वरन यह भी कहा कि मुकाबले ओवरों के आधार पर हों. उदाहरणत: पांच दिनो में कुल 480 ओवर होते हैं. पहली पारी 130-130 और दूसरी पारी 110-110 की हो. चेंज ओवर के कुल छह ओवर एडजस्ट हो जाएंगे. मैच का समय ऐसा हो कि ओस का प्रभाव न पड़े खेल पर. दर्शकों को इससे खेल के तीनो फार्मेट का मजा मिलेगा. लेकिन हिंदी का पत्रकार था न, भाव नहीं मिला. पढ़िए मेरा आठ साल पहले का ब्लाग…

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सिकंदर यूनान से आया था. छः फुट तीन इंच का था. जैसा कद वैसी ही काठी. वह आया , हमला किया, राजनीति की, कूटनीति की , राजा आम्भी को पटाया, पुरु राज को परास्त किया. फिर बंदी पुरु से पूछा, ” मुझसे किस तरह के आचरण की उम्मीद रखते हो ” ? पुरु ने कहा, ” राजा के प्रति, राजा जैसा”.

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इस घटना को बीते 2300 साल हो चुके हैं और ऐसी घटना शायद ही दुबारा देखने को मिले . बीते मंगलवार यानी तीन अगस्त को नई दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर के एक आडिटोरियम में sportz power की और से आयोजित इंडिया क्रिकेट फोरम 2010 सीरीज के तहत क्रिकेट के भविष्य को लेकर हुई परिचर्चा के दौरान मैं यही सोच रहा था कि काश..! अंगरेजी भाषा सिकंदर होती और हिंदी राजा पुरु. स्वतंत्र भारत के 63 बरस बाद आज भी सत्ता की राजधानी दिल्ली के सीने पर हिंदी की दोयम हालात देख कर मैंने सरे आम आंसू तो नहीं बहाए पर खूब अपमानित जरूर महसूस किया .

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देश में आज जो क्रिकेट धर्म है उसका श्रेय जिस हिंदी की कमेन्ट्री और हिंदी के अख़बारों को जाता है, उनका वहां कोई प्रतिनिधित्व नहीं था और मैं भी वहां बतौर मेहमान ही आमंत्रित था. समझ में आयी बात कि जिनके ऊपर की सात पीढ़ियों में किसी ने अंग्रेजों को एक ढेला छोड़ आँख मारने तक की हिम्मत नहीं की होगी, उनकी संतान आज इस देश के विभिन्न कार्यक्रमों के कर्ता-धर्ता बने बैठे हैं. परिणाम यही है कि कभी क्वींस बेटन हाथ में लेकर दौड़ते हैं और नहीं तो क्वींस बेटन को सीने से चिपकाए रखते हैं. चाहे राजतंत्र लेकर दौड़ें या टेम्स के गंदे पानी से नहाएं देसी अंगरेजी बोल कर .

यह जो वर्त्तमान पीढी है, इनकी सोच ऊंची है, भाषा झूठी है और इन दोनों के प्रभाव से नैतिकता खतरे में है . यहाँ मैं इतना तीखा प्रहार इसलिए कर रहा हूँ कि जिस घटना को मैंने देखा और अनुभव किया, उसका यही स्वाभाविक परिणाम है. दुनिया में जितने क्रिकेट प्रेमी हैं उस संख्या के लगभग बराबर अकेले भारत में ही हैं. ऐसी हालत में वर्ल्ड क्रिकेट को तो भारत ही अगले 100 वर्षों तक चला सकता है. परन्तु चूंकि खून में अंगरेजी रक्त कणिकाएँ अधिक हैं, इसलिए भारतीय क्रिकेट को भी वे अंगरेजी साबुन से नहलवा कर दूधिया बनाना चाहते हैं . जबकि हम चाहें तो सर नेवल कार्डस के पोते से भोजपुरी में भी कमेंट्री कराने का माद्दा रखते हैं पर हम ऐसा नहीं करेंगे . क्योंकि हमारे पुरखों के खून में भी कुछ ही लोगों को मात्र अंग्रेज नहीं सुहाए थे परन्तु शेष लोगों ने मुगलों के नेतृत्व में उन्हें सल्तनत ही बख्श दी थी .
लार्ड मैकाले ने 1835 में हॉउस ऑफ़ लार्ड्स में अपने संबोधन के दौरान कहा था, ” भारत आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से अत्यंत संपन्न है . जब तक इनकी भाषा और संस्कृति को बिगाड़ा न जाय, तब तक ये गुलाम नहीं बनेंगे . और अगर बन भी गए गुलाम और बिगड़ी संस्कृति तो हम चले भी आयेंगे तो भी ये कुत्ते की दम की तरह टेढ़े ही रहेंगे. इंडिया हेबिटेट सेंटर में मुझे यह अहसास दुबारा हुआ .

इस कार्यक्रम के पैनल में अपनी बात रखने वालों में संजय मांजरेकर , आकाश चोपड़ा सरीखे पूर्व टेस्ट क्रिकेटर थे तो हर्ष भोगले और एलन विल्किंस जैसे कमेंटेटर….साथ ही बाबली विजय कुमार, एस कन्नन, कादम्बरी मुरली, गौरव काला, श्यामा दास गुप्ता आदि प्रिंट और ब्राडकास्ट मीडिया से जुड़े खेल विशेषज्ञ. यही नहीं संतोष देसाई और कलर्स टीवी के सीईओ राज नायक जैसे मार्केटिंग दिग्गजों की भी उपस्थिति कम गरिमामय नहीं रही. कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे पुराने मित्र और प्रख्यात खेल पत्रकार-कमेंटेटर अयाज़ मेमन. मेहमानों की टेबल पर मुझे बैठा देख कर मेमन ने इस नाचीज को जब बोलने के लिए आमंत्रित किया तो मुझे इसलिए सुखद अनुभूति का अहसास हुआ कि चलो हिंदी मुंशी प्रेमचंद के होरी और घीसू के आँगन से निकल कर इस सभागार तक पंहुच गयी…..लेकिन ऐसा था नहीं.

बातें तो वहां खूब अच्छी-अच्छी हुईं और मैंने भी सोचा कि शायद लोगों की सोच में बदलाव आ गया मगर जब मैंने इस परिचर्चा का समाचार पढ़ा तो बात समझ में आ गईं. क्योंकि जिन बातों और सुझावों का हिंदी में जिक्र किया गया था, उन पर सभागार में भले ही जम कर तालियाँ मिली हों पर समाचार में मात्र दो लाइनों में उसको यह कहते हुए सलटा दिया गया कि टेस्ट मैचों को डे-नाईट का सुझाव दिया गया…. वक्ता हिंदुस्तान, जागरण और अमर उजाला जैसे हिंदी के अख़बारों का पूर्व खेल प्रभारी जो था…लेकिन बेचारे क्या करें, हिन्दी खोपड़ी से निकली सोच उन्हें भाती ही नहीं. उन्हें तो विष का पेड़ समझ में आती है हिंदी जबकि वे अंगरेजी के प्वायजन ट्री के फल रोज खाते हैं.

(वरिष्ठ पत्रकार पद्मपति शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)