न वक़ील, न दलील, न अपील

इस क़ानून के ख़िलाफ़ जो नारा बुलंद हुआ, वह कुछ इस तरह था- ‘न वक़ील, न दलील, न अपील’।

New Delhi, Apr 26 : जिन क़ानूनों की आड़ में तत्कालीन ब्रिटिश हुक़ूमत, भारतीयों के बीच नंगी हो गयी थी, उनमें से एक क़ानून रॉलेट एक्ट भी था। रॉलेट एक्ट लाया तो गया था 1917 में ही, लेकिन इसे लागू किया गया 19 मार्च 1919 को। चूंकि इस क़ानून को साइमन रॉलेट की अध्यक्षता वाली समिति की सिफ़ारिश पर लाया गया था, इसलिए इस क़ानून को रॉलेट एक्ट कहा गया।

Advertisement

लेकिन इस क़ानून का असली नाम था- ‘अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम, 1919’, ज़ाहिर है इस क़ानून का उद्देश्य उन आंदोलनों को कुचलना था, जो भारत में उस समय ब्रिटानी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ अलग-अलग इलाक़ों में अलग-अलग तरह से करवटें ले रहे थे। इस क़ानून के वजूद में आते ही ब्रितानी सरकार ने यह अधिकार हासिल कर लिया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए और बिना दंड दिए उसे जेल में बंद कर सकती थी। इस क़ानून का दूसरा दिलचस्प पहलू यह था कि इसके तहत आरोपियों को उसके ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी नहीं था।ये दोनों बातें नागरिक अधिकार की बुनियाद पर ही क़रारी चोट थी। इस क़ानून के ख़िलाफ़ जो नारा बुलंद हुआ, वह कुछ इस तरह था- ‘न वक़ील, न दलील, न अपील’।

Advertisement

पिछले साल अगस्त महीने में गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में बड़ी संख्या में हुई बच्चों की मौत के बीच एक शख़्स उभरा था। पहले उसे बच्चों को बचाने की जद्दोजहद करते किसी नायक के तौर पर पेश किया गया, फिर वह चंद दिनों में ही ख़लनायक क़रार दिया गया। मोहम्मद क़फील का सच क्या है, इसका पता निष्पक्ष जांच पड़ताल से ही संभव है। मगर मोहम्मद कफ़ील को ज़मानत का नहीं मिलना, एक अजीब संशय की तरफ़ इशारा करता है, क्योंकि जिस देश में बड़े से बड़े आरोपियों को चंद घंटों या दिनों में ज़मानत मिलते देखा जाता है, वहीं मोहम्मद कफ़ील पिछले आठ महीनों से जेल में बंद है।

Advertisement

इसे नागरिक अधिकार के हनन के तौर पर ही देखा जा सकता है, क्योंकि ज़मानत हासिल करना हर आरोपी का नागरिक अधिकार है। फिर सुबूतों के आधार पर यह तय करना अदालत का काम है कि आरोपी को महज़ आरोपी बनाया गया था, या फिर सचमुच में वह दोषी है। मगर क़ानूनी प्रक्रिया के बीच ज़मानत हासिल करना डॉ. कफ़ील का हक़ है। ऐसे अनेक मामलों में रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ बुलंद किया गया वह नारा आज भी हर जागरूक नागिक के कानों में घनघनाता रहता है- ‘न वक़ील, न दलील, न अपील’ !

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)