‘बाबाओं’ के आपराधिक मंसूबे, सियासत और समाज

बाबाओं-धर्मात्माओं के तमाम तरह के कुकर्मों का हाल के दिनों में तेजी से पर्दाफाश हो रहा है। पर हमारे समाज में बाबाओं, धर्म के धंधेबाजों और ठेकेदारों का रुतबा कुछ कम नहीं हुआ।

New Delhi, Apr 27 : हाल के दिनों में यह दूसरा वाकया है, जब किसी ‘बड़े बाबा’ या ‘धर्मात्मा’ को बलात्कार जैसे जघन्य अपराध का दोषी करार दिया गया है। जोधपुर की अदालत ने अनेक बड़े राजनेताओं के प्रिय और श्रद्धेय बाबा आसाराम बापू के खिलाफ आश्रम की एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार के आरोप को सही पाया है। अदालत ने उन्हें सजा सुनाई। इसके पहले एक अन्य विवादास्पद बाबा गुरमीत सिंह उर्फ राम-रहीम को अदालत से ऐसे ही मामले में सजा सुनाई जा चुकी है। लंबे समय से आसाराम जेल में था और बड़े-बड़े वकीलों की बड़ी-बड़ी कोशिशों के बावजूद अदालत ने उसे जमानत तक नहीं दी थी। उस पर यह भी इल्जाम है कि मुकदमे को कमजोर करने के लिए उसने और उसके गुर्गों ने कई गवाहों की हत्या तक करा दी। इस मामले में भी अलग मामले लंबित हैं। राम-रहीम के खिलाफ भी एक बेहद साहसी पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या कराने का मामला लंबित है। छत्रपति ने अपने अखबार में राम-रहीम के आश्रम के अंदर चलने वाले आपराधिक कामों का पहली बार प्रमाण के साथ पर्दाफाश किया था। इन दो के अलावा भी कुछ और कथित धर्मात्मा इन दिनों जेल में हैं या जमानत पाकर अपने विरूद्ध दर्ज मुकदमे लड़ रहे हैं। बाबाओं-धर्मात्माओं के तमाम तरह के कुकर्मों का हाल के दिनों में तेजी से पर्दाफाश हो रहा है। पर हमारे समाज में बाबाओं, धर्म के धंधेबाजों और ठेकेदारों का रुतबा कुछ कम नहीं हुआ। आखिर वजह क्या है?

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इस सवाल का जवाब पाने के लिए हमें अपनी सामाजिकता, अर्थतंत्र और राजनीति से ‘धर्म’ और ‘धर्मात्माओं’ के रिश्तों की शिनाख्त करनी होगी। आज की असलियत ये है कि अनेक बाबाओं के लिए धर्म एक धंधा है। बाबाओं की दुनिया में इन्हीं का रुतबा है, जो सच्चे, सीधे और सचमुच के धार्मिक हैं, उनकी खास पूछ नहीं होती। आमतौर पर कोई भी सुसंगत और मानव-पक्षी धर्म लोगों को अच्छे रास्ते पर चलने का संदेश देता है। लेकिन अपने समाज में बरसों से धर्म का एक हिस्सा धंधा बनता गया है। ऐसे धंधेबाजों के रिश्ते बड़े उद्योगपतियों, राजनेताओं और नौकरशाहों से होते हैं। अनेक विवादास्पद बाबाओं के बारे में आम धारणा है कि उनके पास राजनेताओं, उद्योगपतियों और नौकरशाहों की ‘काली कमाई’ पड़ी रहती है। इससे टैक्स आदि का संकट नहीं आता। जरुरत पड़ने पर ऐसे बाबा उन ताकतवर लोगों को धन देते रहते हैं। यह महज संयोग तो नहीं कि भारत में बाबाओं के पास इतने विशाल परिसर, बड़े-बड़े भवन, आलीशान गाडि़य़ां और ऐशो-आराम की तमाम चीजें हमेशा पड़ी रहती हैं।

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आपराधिक मनोवृत्ति के बाबा धर्म की आड़ में तमाम तरह के अशिक्षित, अल्पशिक्षित और सीधे-सादे लोगों को अपने मायाजाल में फंसा लेते हैं। इसके लिए वे बड़ी संख्या में अपने गुर्गे पालते हैं। धनी-संपन्न लोगों के अलावा साधारण लोग भी इनके जाल में फंसते रहते हैं। अपने जैसे समाज में अशिक्षा और नासमझी इस कदर व्याप्त है कि अनेक लोग अपनी समस्याओं के समाधान के नाम पर ऐसे बाबाओं के पास पहुंचते रहते हैं। इस तरह धर्म के धंधेबाजों का सामाजिक आधार बढ़ता जाता है। सिर्फ पिछड़े समाजों या क्षेत्रों में ही नहीं, कथित समुन्नत और समृद्ध इलाकों में भी इनका असर देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए देश में इस वक्त बाबाओं के सबसे अधिक डेरे पंजाब-हरियाणा में हैं। दोनों राज्य अपेक्षाकृत समृद्ध और प्रगतिशील माने जाते हैं। इनमें कुछ डेरे गैर-विवादास्पद और साफ-सुथरी छवि के भी हैं। लेकिन ज्यादातर लोगों को बेवकूफ बनाकर धन ऐंठने में जुटे रहते हैं। आमतौर पर इन्हें राजनीतिक लोगों का संरक्षण मिलता है। उसके बदले वे अपने शिष्यों से राजनीतिक नेताओं को चुनाव में मदद कराते हैं।

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आसाराम बापू और राम-रहीम, दोनों का यही धंधा रहा है। खुला-खेल फर्रुखाबादी! पहले अगर उसे अपराधी कहकर लेख लिखा जाता तो वह या उसके समर्थक मानहानि का दावा कर देते लेकिन आज अदालत ने उसे सचमुच नृशंस अपराधी घोषित किया है। पर सिर्फ एक या दो बाबाओं के दोषी साबित किये जाने या जेल जाने से ‘बाबाओं’ के आपराधिक मंसूबे नहीं रूकेंगे। इसके लिए समाज-सुधार के साथ राजनीति का चरित्र भी बदलना होगा। पर आज तो कुछ सरकारें ‘बाबाओं’ को बाकायदा मंत्री पद दे रही हैं। संभव है, ये सभी बाबा साफ-सुथरे और योग्य हों पर धर्मात्मा का काम राजनीति करना नहीं है। जरूरत इस बात की है कि धर्म और राजनीति के ऱिश्ते को खत्म किया जाय। समाज को सुशिक्षित, स्वस्थ और सुसंगत बनाना होगा। संविधान के प्रावधानों के तहत लोगों के बीच वैज्ञानिक मिजाज विकसित करने की जरूरत है। दुखद है कि आज हमारी राजनीतिक संस्कृति इसके रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बनी हुई है।

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)