न्यायपालिका की आज़ादी से ज़्यादा न्यायपालिका की जवाबदेही ज़रूरी है

संघीय व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अहम माना गया है. उदाहरण के लिए यूएसए, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया.. इन तीनों देशों में जजों की नियुक्ति सरकार करती है।

New Delhi, Apr 29 : जस्टिस जोसेफ की नियुक्ति का मामला गरमा गया है. कोलेजियम की सिफारिश को जैसे ही सरकार ने दोबारा विचार करने भेजा तो हाय तौबा मचने लगी. विपक्ष समेत देश के सारे लेफ्ट-लिबरल गैंग के सदस्यों ने कहना शुरु कर दिया कि न्यायिक व्यवस्था खतरे में है.. प्रजातंत्र खतरे में है. और तो और भारत तेरे टुकड़े टुकड़े गैंग भी कहने लगा कि डेमोक्रेसी पर यह एक कुठाराघात है. समस्या ये है कि ऐसे लोगों को न तो डेमोक्रेसी से कोई वास्ता है और न ही इन्हें पता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब क्या होता है?

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भारत शायद दुनिया का अकेला लोकतंत्र है जहां खुद जज ही जज को नियुक्त करते हैं. और तो और नियुक्ति के इतिहास को खंगाला जाए तो पता चलेगा कि राजनीतिक दलों से ज्यादा परिवारवाद नामक घून से देश की न्यायपालिका सड़ चुकी है. कोई इस पर सवाल उठाए तो वो न्यायपालिका और प्रजातंत्र का दुश्मन मान लिया जाता है. मजेदार बात ये है कि हर पार्टी में वकीलों की बड़ी फौज है जो सरकार बनने पर मलाई भी खाते हैं. क्या ये देश वकीलों और जजों की बपौती है जो ये न आरटीआई के अंदर आएंगे.. न तो अपने कामकाज में पार्दर्शिता लाएंगे.. न भ्रष्टाचार कम करेंगे.. न ही किसी के प्रति जिम्मेदार होंगे.. न ही संविधान को मानेंगे.

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पहले बात नियुक्ति की.. संघीय व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अहम माना गया है. उदाहरण के लिए यूएसए, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया.. इन तीनों देशों में जजों की नियुक्ति सरकार करती है. नोट करने वाली बात ये है कि राज्य स्तर के जजों की नियुक्ति राज्य सरकार करती है. क्या इन देशों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता नहीं है? क्या यहां डेमोक्रेसी नहीं है? ये तो संघीय व्यवस्था की बात है. जहां संघीय व्यवस्था नहीं, लेकिन जिन देशों की डेमोक्रेसी का लोहा पूरी दुनिया मानती है. जैसे कि स्वीडन, नॉर्वे, फ्रांस, ब्रिटेन और फिनलैंड.. किसी भी देश में जज खुद ही अपने आप को नियुक्त नहीं करते.

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फ्रांस में न्यायपालिका को ज्यूडीशियल सर्विस के जरिए संचालित किया जाता है. फ्रांस का सिस्टम सबसे ज्यादा पारदर्शी, ऑब्जेक्टिव और जवाबदेह है. इंग्लैंड में न्यायपालिका में कार्यरत लोगों के बीच से ही सरकार जजों का चुनाव करती है, लेकिन अमेरिका में कोई भी व्यक्तिजज बन सकता है, यह जरूरी नहीं कि उसके पास न्यायपालिका का कोई अनुभव हो. स्वीडन, नार्वे और फिनलैंड में भी सरकार ही जजों को नियुक्त करती हैं. यहां तो ज्यूडिशल रिव्यु का भी सिस्टम नहीं है. तो क्या स्वीडन, नार्वे और फिनलैंड में डेमोक्रेसी नहीं है? हैरानी की बात ये है कि इन देशों न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कोई विवाद नहीं है. तो फिर हिंदुस्तान की ज्यूडिशियरी में कौन सा रोग है?

जजों की नियुक्ति का मामला हमेशा से विवादों में रहा है. पहले जजों की नियुक्ति सीधे सरकार करती थी और चीफ जस्टिस से इस मसले पर सिर्फ सलाह ली जाती थी. 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रणाली पर सवाल खड़ा किया. कोर्ट ने कहा कि संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अहम बताया गया है और जजों की नियुक्ति में सरकार का दखल उचित नहीं है. इसके बाद भारत में हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्तिके लिए कॉलेजियम प्रणाली बनी.
जजों का पैनल या कॉलेजियम जजों के नाम तय कर सरकार के पास भेजता है और सरकार को इसे मानना पड़ता है. सरकार सिर्फ इस प्रस्ताव को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकती है. लेकिन, यदि कॉलेजियम नियुक्ति पर सर्वसम्मत फैसला सुनाता है, तो सरकार इसके निर्णय को मानने के लिए बाध्य होती है. ये व्यवस्था लागू हो गई. कई क़ानूनविद ऐसे भी हैं जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाखुश थे. क्योंकि ये न तो पारदर्शी है और न ही संवैधानिक. इससे संविधान में निहित चेक एंड बैलेस का सिस्टम खत्म हो गया. इतना ही नहीं, ये एक निरंकुश व्यवस्था है. इस सिस्टम में सरकार की भूमिका न के बराबर हो गई. जबकि संविधान में जजों की नियुक्ति के बारे में आर्टिकल 124 में यह साफ लिखा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे और नियुक्ति से पहले राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट की या वह जिनकी चाहेंगे उनकी राय लेंगे. ये कहीं नहीं लिखा है कि ये राय राष्ट्रपति पर बाध्य है. मतलब साफ है कि संविधान ने जजों की नियुक्ति की शक्ति सिर्फ राष्ट्रपति को दी है.

देश में प्रजातंत्र के साथ साथ एक संविधानिक व्यवस्था भी है. भारत के संविधान को दरकिनार कर प्रजातंत्र के बारे सोचना भी पाप है. जो लोग ये कह रहे हैं कि जस्टिस जोसेफ की नियुक्ति के मामले को प्रजातंत्र पर खतरा बता रहे हैं उन्हें पता होना चाहिए कि प्रजातंत्रिक व्यवस्था में हर संस्था का जवाबदेह होना लाज़मी है. सबसे बड़ी बात तो ये कि जिस व्यवस्था का संविधान में कोई उल्लेख ही नहीं हो वो संवैधानिक कैसे हो सकती है? जहां तक बात राजनीति की है तो कांग्रेस पार्टी को तो इस पर बोलने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि 1993 से पहले जब कांग्रेस की सरकार अपने मनपसंद जजो की बहाली करती थी तो क्या वो प्रजातंत्र को खतरे में डाल रहे थे? लेफ्ट-लिबरल और टुकड़े टुकड़े गैंग को यह भी बताना चाहिए था कि कॉलेजियम प्रणाली की निष्पक्षता और पार्दशिता को लेकर जो आरोप हैं उसका क्या हल है? कॉलेजियम प्रणाली पर उठी शंकाओं का क्या निदान है? अगर कोई इसे हल करने की कोशिश भी करता है तो ये लोग उसमें भी अवरोध खड़ा करते हैं.

अब जो विवाद हो रहा है उसके बैकग्राउंड को समझना जरूरी है. कॉलिजिम सिस्टम पर उठ रहे सवालों का हल निकलाने के लिए मोदी सरकार ने सरकार बनाते ही राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना की मुहिम तेज़ कर दी और इसके लिए क़ानून में संशोधन भी कर दिया. नेशनल ज्यूडीशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन (एनजेएसी) बिल (99वां संविधान संशोधन) के संसद में पास होने के बाद, उसे आधे से अधिक राज्यों की भी स्वीकृति भी मिल गई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया. दलील ये दी कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बेसिक स्ट्रक्चर है. न्यायपालिका की स्वतंत्रता बिना किसी शक के बेसिक स्ट्रक्चर है, लेकिन उसके अलावा भी संविधान के कई बेसिक स्ट्रक्चर हैं. जिन्हें इस फैसले में नजरअंदाज किया गया. हकीकत ये है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने संविधान के एक बेसिक स्ट्रक्चर को बचाने के लिए पांच अन्य बेसिक स्ट्रक्चर को क्षति पहुंचाई.

हक़ीकत यह है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि उसकी जवाबदेही तय नहीं हो, और जज ही जज की नियुक्ति करें. न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सही मतलब न्याय की प्रक्रिया में जज स्वतंत्र हों, बिना किसी बाहरी प्रभाव के जज अपना फैसला दें, अदालतों में भ्रष्टाचार न हो. न्याय प्रक्रिया में पैसे और प्रभाव का खत्म होना ही सही आजादी है. पैसे लेकर काम करवाने और बड़े-बड़े वकीलों के प्रति पक्षपात बंद हो. अमीर और ग़रीब के लिए अदालत समान भाव से फैसला सुनाए, यही न्यायपालिका की स्वतंत्रता की आत्मा होनी चाहिए. जनता का न्यायिक प्रक्रिया के प्रति आदर और भरोसा मजबूत होना ही देश की न्यायपालिका की सबसे बड़ी जीत है.

इस पर तो कोई विवाद नहीं है कि न्यायिक व्यवस्था में सुधार की जरूरत है. क्योंकि अदालतों में पैसे का बोल-बाला है. भ्रष्टाचार है. न्याय मिलने में देरी होती है. इसके अलावा भी न्यायिक व्यवस्था में कई खामियां और समस्याएं हैं जिन्हें अविलंब सुधारने की जरूरत है. न्यायपालिका को लेकर सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश में न्यायिक प्रक्रिया किस तरह जनता के लिए सुलभ, सरल, स्वतंत्र, निःशुल्क और शीघ्र उपलब्ध हो, लेकिन देश की सरकार और न्यायपालिका के बीच जजों की नियुक्तिके मसले पर महाभारत शुरू हो गई है.
समझने वाली बात यह है कि कई सालों से ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विस की मांग हो रही है. जजों की नियुक्ति संघ लोक सेवा आयोग(यूपीएससी) जैसी संस्था द्वारा हो. नियुक्ति की शुरुआत एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज (अतिरिक्त जिला न्यायाधीश) से हो. चयनित व्यक्ति वहां से अपनी काबिलियत और वरीयता के आधार पर हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज बनें. लेकिन इस सुझाव को हर बार न्यायपालिका की आजादी की दलील की आड़ में ताक पर रख दिया जाता है. जरूरत इस बात की है जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाई जाए. जिस तरह अखिल भारतीय सेवाओं (ऑल इंडिया सर्विसेज) के लिए प्रतियोगी परीक्षायें आयोजित होती हैं उसी तरह न्यायिक सेवाओं के लिए भी परीक्षा हो ताकि मेधावी छात्र-छात्राओं को मौक़ा मिल सके. हाईयर ज्यूडिशियरी में परिवारवाद खत्म हो.

संसद के दोनों सदनों और 20 विधानसभाओं द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तिआयोग(99वें संविधान संशोधन) विधेयक को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक बताना कोई सामान्य घटना नहीं है. न्यायपालिका ने इसे ठुकरा कर प्रजातंत्र और संविधान की अवमानना की है. स्वतंत्रता की आड़ में कोई संस्था या व्यक्ति यह नहीं कह सकता है कि वह किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है. प्रजातंत्र में जनता ही सर्वोच्च है, वही मालिक है. रही बात व्यवस्था या प्रणाली की तो वह समय, काल और जरूरत के हिसाब से बदली जा सकती है. जब तक देश प्रजातंत्र है तब तक सभी सरकारी संस्थाओं को जनता के प्रति जवाबदेह होना पड़ेगा. चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो या फिर न्यायपालिका. सबकी जवाबदेही है और यही प्रजातंत्र की मूल भावना है.

(वरिष्ठ पत्रकार मनीष कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)