मोदी की ’अनौपचारिक कूटनीति‘‘

दूसरी तरफ चीन है, जिसने मोदी-जिनपिंग की मुलाकात से पहले ही बाजार को लेकर उदार और सकारात्मक रुख की वकालत की है, जो किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए आज की सबसे बड़ी जरूरत है।

New Delhi, Apr 29 : अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई पिछले दिनों भारत में थे। इस मौके पर अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की र्चचा करते हुए उन्होंने दो महत्वपूर्ण बातें कहीं। एक, भारत को अमेरिका से दूरी बना कर रखनी चाहिए। दूसरी, भारत को चीन के साथ दोस्ती मजबूत करनी चाहिए। वर्तमान नियंतण्र परिस्थितियों में भारत की दृष्टि से ये दोनों बातें पचने वाली नहीं हैं। इसके पीछे कारण हैं। पहला, अमेरिका के साथ भारत के मौजूदा रिश्ते आजादी के बाद सबसे अच्छे दौर से गुजर रहे हैं। दूसरा, डोकलाम से लेकर अरु णाचल प्रदेश की सीमाओं तक चीन गाहे बगाहे भारत को आंखें दिखाता रहा है। तात्पर्य यह है कि मोदी और ट्रंप की मित्रता ने दोनों देशों के लिए हर क्षेत्र में पारस्परिक हितों के नये दरवाजे खोले हैं, तो चीन ने भारत के साथ शत्रुता का कोई मौका नहीं गंवाया है। ऐसे में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अनौपचारिक चीन यात्रा कुछ लोगों के लिए हैरत भरी हो सकती है, लेकिन वास्तव में यह दूरदर्शिता से भरी हुई है। हामिद करजई के हवाले से सोचें तो अमेरिका के साथ रिश्तों का उन्हें गहरा अनुभव रहा है। उन्होंने वाशिंगटन पर भरोसा न करने की बात कही है। इसे समझा भी जा सकता है। भारत के साथ ढेरों वादों और नेक इरादों के ऐलान के बावजूद ट्रंप ने भारतीय हितों की अनदेखी का कोई मौका नहीं चूका है। चाहे वह एच-1 बी वीजा हो, जिससे सबसे ज्यादा भारतीय प्रभावित हुए हैं, या फिर भारत से आयातित उत्पादों पर करों में बढ़ोतरी का मुद्दा हो।

Advertisement

दूसरी तरफ चीन है, जिसने मोदी-जिनपिंग की मुलाकात से पहले ही बाजार को लेकर उदार और सकारात्मक रुख की वकालत की है, जो किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए आज की सबसे बड़ी जरूरत है।भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अनौपचारिक चीन यात्रा दरअसल, किसी औपचारिक यात्रा से भी महत्त्वपूर्ण है। ऐसे समय में, जब भारत-चीन के बीच संबंध लगातार तनावपूर्ण बने रहे हों, यह यात्रा कोई बड़ा परिणाम ला सकती है। इसीलिए इस प्रयोग को मोदी-जिनिपंग की ‘‘अनौपचारिक कूटनीति’ का नाम दिया जा सकता है। भारत-चीन के बीच संबंधों के इतिहास में यह ऐसी घड़ी है, जब अनौपचारिक यात्रा से संबंध की टूटती दरार को पाटने की कोशिश दिखी है। संकेत यात्रा के आरंभ होते ही मिला जब भारतीय प्रधानमंत्री ने कहा, ‘‘मुझे उम्मीद है कि ऐसी अनौपचारिक मुलाकातें दोनों देशों के बीच परंपरा बन जाएंगी।’ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी ऐसी ही उम्मीद जताई है, जिन्होंने कहा, ‘‘हम आने वाले समय में भारत और चीन के बीच सहयोग का तेज और सुनहरा भविष्य देखते हैं।’ यहां एक बार फिर अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति का बयान गौरतलब है, जिसमें उन्होंने कहा कि भारत और चीन के बीच गहरे रिश्ते एशिया को विश्व में बड़ी मजबूती और सुरक्षा दे सकते हैं। शी जिनपिंग चीन में अब तक के सबसे ताकतवर राष्ट्र प्रमुख हैं। हाल में उन्हें आजीवन पद पर बने रहने को मंजूरी दी गई है। यह भी तय है कि भारत में पिछले कई दशकों के बाद नरेन्द्र मोदी जैसे ताकतवर प्रधानमंत्री के हाथ में देश की कमान है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में दोनों की अपनी पहचान और पकड़ है।

Advertisement

ऐसे में, इनके बीच आपसी सहयोग विश्व में दोनों देशों के हितों की सुरक्षा कर सकता है। इसीलिए मोदी और जिनपिंग की इस मुलाकात को ‘‘बीती ताहि बिसारि दे’ के साथ दूरदर्शितापूर्ण माना जा रहा है।अनौपचारिक बातचीत से अगर गतिरोध टूटता है, तो यही तरीका श्रेष्ठ है। इस यात्रा और शिखर वार्ता का यही महत्त्व है। जिस तरीके से अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वार छिड़ा है, उसे देखते हुए भारत की अहमियत और भी अधिक बढ़ गई है। चीन की कूटनीति भारत को अमेरिका से दूर करने की है, जिसमें अगर वह सफल हो गया तो डोकलाम जैसे विवाद इस लक्ष्य के सामने तुच्छ साबित हो सकते हैं। भारत को अगर आतंकवाद के मसले पर चीन का सहयोग मिलता है, तो यह अतिरिक्त और उम्मीद से हटकर मिला सहयोग माना जाएगा। एक स्थिति थी, जब पाकिस्तान शक्तिशाली अमेरिका का खिलौना बना हुआ था, फिर भी अमेरिका के साथ भारत के संबंध प्रगाढ़ हुए। अब दूसरी स्थिति है कि पाकिस्तान धीरे-धीरे चीन का खिलौना बनता जा रहा है, तो संभव है कि चीन के साथ भी भारत के संबंध प्रगाढ़ हो जाएं। अगर भारत ने अपनी कूटनीति की प्राथमिकता को पाकिस्तान विरोध से ऊपर कर लिया और इसे व्यापारिक जरूरतों से जोड़ लिया तो इसके दीर्घकालिक लाभ दोनों देशों के हिस्से में आएंगे।जिस तरह से दक्षेस का महत्त्व घटा है, और दक्षिण एशियाई देशों में चीन के द्विपक्षीय संबंध मजबूत हुए हैं, उसे देखते हुए भारत के लिए भी यह जरूरी है कि वह अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखे। जो स्थिति मलयेशिया में बनी है, वैसी स्थिति श्रीलंका और दूसरे देशों में न बने। ऐसा तभी हो सकता है जब विश्व व्यापार में भारत मजबूत साझीदार बनकर उभरे। फिलहाल, अमेरिका और चीन दो धुरी दिख रहे हैं। भारत इनसे समान दूरी रखते हुए तीसरा केंद्र बनने की कोशिश में है।

Advertisement

इस रास्ते पर चलना इतना आसान नहीं होगा। लेकिन उसे विश्व और कम से कम एशिया में अपनी अलग जगह सुनिश्चित करनी ही होगी। लेकिन चीन के साथ रिश्तों को अनदेखा करके इसमें बाधाएं ज्यादा कड़ी होंगी जबकि उससे हाथ मिला कर राह आसान हो सकती है।घरेलू मोर्चे पर प्रधानमंत्री मोदी से इस चीन यात्रा को लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं। कांग्रेस डोकलाम का मुद्दा उठा रही है, तो बीजेपी भी राहुल गांधी की चीनी प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की तस्वीरें दिखा रही हैं। हालांकि, कांग्रेस खुद अपने लंबे शासनकाल में चीन के साथ सीमा विवाद नहीं सुलझा सकी। वास्तव में, सरकार और विपक्ष, दोनों जानते हैं कि घरेलू सियासत और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति अलग होती हैं। तीस साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी चीन की अनौपचारिक यात्रा पर गए थे। तब चीन ने भारत को मोस्ट फेर्वड नेशन का दर्जा दिया था। तनाव के दिनों में किसी अनौपचारिक बातचीत से यह रु तबा हासिल कर लेना राजीव गांधी की बेहतरीन कूटनीति ही कही जाएगी। वैसे ही, तनाव के दिनों में नरेन्द्र मोदी का अनौपचारिक रूप से चीन की यात्रा करना अपने आप में एक उपलब्धि है। चीन और पाकिस्तान के एक साथ आ जाने के बाद भारत की सीमा असुरक्षित हो गई है। इसे सुरक्षित जोन में लाने के लिए भी यह जरूरी है कि छोटी बातों पर टकराव को टाल कर खुद को मजबूत किया जाए। मोदी विगत चार साल में चौथी बार चीन गए हैं, और जून महीने में पांचवीं बार भी जाएंगे। इस बीच मोदी ने शी जिनिपंग को भी निमंतण्रदे दिया है। अगर यह माहौल बना रहेगा तो दोनों देशों के बीच संबंध सुधरते देर नहीं लगेगी। सवाल यह है कि हम छोटी बातों में उलझे रहें या कि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले दो देश अपने मानव संसाधनों का इस्तेमाल बेहतरी और विकास के लिए करें। चीन और भारत के राष्ट्र प्रमुखों ने ऊंची सोच का नमूना पेश किया है। नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा इन सारी वजहों से यादगार और ऐतिहासिक साबित हो सकती है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)