मार्क्स ने कहा, धर्म अफ़ीम है, इसलिए धर्म छोड़ दो

मार्क्स, तुम से जुड़ने के बाद ही हमने जाना की दाढ़ी भी फैशन है, वर्ना गांव के लोग साधु,सांड़,पगलवा बोलते।

New Delhi, May 06 : हे ब्रो मार्क्स,
जन्मदिन की हार्टली डीपली बधाई । मार्क्स, तुम और तुम्हारे विचार दुनिया में किस वर्ग के किस धारा के कितने काम आये ये तो दुनिया जानती रहेगी,बहस होते रहेंगे लेकिन मेरे देश भारत के तमाम बभनटोली,ठकुरौटी, बभनगावों से तुम्हे सलाम पहुंचे। तुम्हारा सबसे ज्यादा सार्थक प्रयोग इन पंडित जी और ठाकुर साब के नए खून वाले लौंडों ने किया और जम कर किया। आज तुम्हारे जन्म की सच्ची ख़ुशी अगर किसी को है तो वो यहीं है। तुम न होते तो हम हर सोमवार भोलेनाथ को जल चढ़ाते और मंगलवार को बजरंगबली को सिंदूर घिसते चट जाते और उकता के गंगा में जा डूब गए होते।
तुम न होते तो मिश्रा जी, पांडेय जी,दुबे जी,सिंह जी के बच्चे भर कार्तिक ठंड में नहा नहा साइबेरिया हो जम गये होते। सौभाग्य था इस पीढ़ी का कि तुम्हारा साथ मिल गया। वरना हमारे घरों के संस्कार, पूजा पाठ,धर्म कर्म,मांस मदिरा वर्जित इत्यादि इतने बंधन थे कि जीवन झंड ही होना था।
मैट्रिक तक गांव में सरस्वती शिशु मंदिर से धरम करम, प्रार्थना,देवी देवता,साग सब्ज़ी आहार टाइप शुष्क और नीरस जीवन ले के चला पंडितों का प्रताड़ित बच्चा जब शहर के कॉलेज पहुंचा तो तुम मिल गए। वरना हम लौंडे यहां भी धोती पहिन कक्षा करते और दोपहर दो केला के साथ वृहस्पति का व्रत तोड़ते और शाम गंगा जल से आचमन कर गांगेय ड्रिंक्स का आनन्द ले रात दलिया खा सो रहे होते। हमारे जीवन में जीवन तो साल्ला खोजते न मिलता। लेकिन ठीक इस संकट के वक़्त में एक दिन मिले तुम।

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अब लड़के ने कर दी क्रांति। अब वो रामसुन्दर पांडेय या धरणीधर दुबे या मधुमेह से ग्रस्त इलाज़ करा रहे भुजबली सिंह का पुत्र नही रहा। वो अब मार्क्सवादी हो गया।
अब वो महीनों अघोरी की तरह बिना नहाये रह सकता था। पसीना जितना सड़ता और गमक फैलती,उसके विचार उतने ज्यादा प्रसार पाते, लोग उसकी चर्चा करते”हाउ देखिये,लालटुआ, दुरे से गमक रहा है,भर दू महीना सावन भादो नहाया नही है, धरना प्रदर्शन,पकड़ने धरने में व्यस्त था।एक दिन आषाढ़ में भींग गया था बारिश में,देंह नही पोछा, कपड़वा सड़ने जैसा हो गया,और भी ज्यादा गमक रहा तब से।”
मार्क्स , तुमसे पहले हम लौंडों के माता पिता ने जहर बो रखा था। जब देखो तब निर्देश,आज पूर्णिमा है नहा लेना,आज मकरसक्रांति है नहा लेना,आज दशहरा है नहा लेना।
लेकिन मार्क्सवादी होते ये लोड खत्म। हम धर्म के नाम पे होने वाले दर्दीले स्नान से बच गए, गरीबों मजदूरों के लिए 3 लीटर पानी बचा लेने का भी श्रेय ले लिया फ़ोकट में।

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जब तुम नही मिले थे, घर से रोज निगरानी होता था, मंगलवार को मुर्गा न खाओ, वृहस्पत को मछली न खाओ, सातों दिन मदिरा न पियो। ये क्या जिंदगी थी। मन करता था खा लूँ,पी लूँ पर समाज और घर से डर लगता था,धर्म से भी। अब जब तुम मिले, कोई लोड नही। अब तो मार्क्सवादी होने के नाम पर सोमवार रात से दारू शुरू करते हुए मंगलवार सुबह तक सोता हूँ और जगते ही सूर्य की पहली किरण के साथ मुर्गा कतरनी भात के साथ पेल देता हूँ। ये सब अब असमाजिक या अनैतिक नही लगता पहले की मूर्खता की तरह, अब मार्क्सवादी हूँ और ये तो मेरा कर्तव्य है, मैं बेफ़िक्र हो करता हूँ। काम वासना के नाम पर तो रूह कांप जाता था अपने गांव घर समाज में। जब से मार्क्सवादी हुआ हूँ, खुल के खेलता हूँ और पहले तो डर लगता था कि लोग अनैतिक बोल बड़ी पिटेंगे,हँसेंगे,थूकेंगे, पर मार्क्सवादी हो जाने के सर्टिफिकेट मिलते ही एक बड़ा वर्ग अब मेरे साथ है। मार्क्स को समर्पित कुछ महिलाएं भी सहयोग ही करती हैं, न कि धार्मिक मूढ़ महिलाओं या लड़कियों की तरह इन सब चीज़ को गंदा बोल हड़काती हैं। ये सहविचारी महिलाएं , पुरानी दकियानूसी स्त्रियों की तरह विवाह को ही सब कुछ नही मानती इस मामले में। बल्कि तुम्हारे नाम पे तो अब हम लोग विवाह को बेवजह का बंधन और गुलामी बोल इस व्यवस्था को हतोत्साहित करते रहते हैं और अगर किसी का गलती से बिहा हो भी गया तो अतिरिक्त प्रेम मोहब्बत का भी बेजोड़ सब तर्क रेडी रखते हैं। युवा से ले अधेड़ उम्र तक के सब मेल बेमेल अफेयर सब को तुम्हारे नाम पे खेल जाते हैं, साला भले तुमको भगवान पे यक़ीन न हो पर तुम मेरे भगवान हो मार्क्स।

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जब मैं धर्म के कुचक्र में था, मेरे पिता ने नौकरी पाने हेतु कुण्डली दिखा कुछ रत्न पहिनाया था। अब तब से तीस हज़ार के रत्न में मेरे ऊँगली में था और मैं साला शाम को एक पैग पाने के लिए दिन भर ठाकुर साब के लड़कों के पीछे घूमता था। जब से मार्क्सवादी हुआ, समझ गया कि ग्रह गोचर कुछ नही होता, मैंने रत्न बेच महीना भर जम के पिया। पेट का किडनी हाथ जोड़ा, “अब मत डालिये बाबा नही त रास्ता देख हम ही निकल जाएंगे बह के।”
अब कोई नही कहता कि मुझ पे किसी ग्रह का प्रभाव है,अब तो मैं खुद अपने बाप के लिए शनि हूँ।
मार्क्स ब्रो, पहिले साला लंबा चौड़ा संयुक्त खानदान में होने के कारण कोई भी कहीं दूर का रिश्तेदार मरे, मुझे माथा मुड़ाना होता था। जीवन में न फैशन था कुछ न फैशन के लिए बाल होता था। साला हर दू महीना पे कोई बुढ़वा बुढ़िया मेरा बाल छिलवा दे। फिर मैं बना मार्क्सवादी, अब कोई बाल न बांका कर पाता है।सब जान गए, नही मुड़ायेगा,दिल्ली रहता है, मार्क्सवादी है। अब मुझे और मेरा भविष्य देख मेरे घर वाले रोज मर रहे, पर मैं नही छिलाता बाल। एक बार एक हॉलीवुड मूवी देख टकला होने को मन किया , तो मैंने सरकार के नीति के विरोध का एक आंदोलन कर लिया और उसी के विरोध स्वरूप बाल छिला लिया।

मार्क्स, तुम से जुड़ने के बाद ही हमने जाना की दाढ़ी भी फैशन है, वर्ना गांव के लोग साधु,सांड़,पगलवा बोलते। पर अब तुम्हारे वाद के नाम पर भरी जवानी में हाथ भर का दाढ़ी रखता हूँ। इसमें कितने जुओं का परिवार भी पलता खेलता है।कितना मानवीय हो चूका हूँ मैं।पहले रात भर हत्यारे की तरह मच्छरदानी में मच्छर के खून करता था,आज जूँ तक नही मारता। हॉस्टल के बेड में खटमल है, संगिनी मान संग सोता हूँ।
तुमसे जुड़ के ही जाने कि खादी के नीचे महंगा जीन्स पहनना भी फैशन हो सकता है।वरना हम खादी को गांव का वस्त्र बुझते थे, दादा परदादा को पहिनते देखे थे पजामा और धोती के साथ। लेकिन यहां जब 6000 हज़ार के जीन्स पर लेदराहा खद्दर खादी कुरता और गोड़ में दस हज़ार का रिबॉक जुत्ता देखे तो जाने कि तुम्हारे नाम पर लंबा सस्ता कुरता से महंगा जीन्स छुपाया जा सकता है।
जब गांव में थे तब गरीब देख भाग जाते थे,रो देते थे। बचते थे वीभत्स संघर्ष को देखने से। घर घुस जाते थे। अब मार्क्सवादी हो गए तब जाने कि गरीब से भागने का नही, फोटो खींचने का, साथ में हंसने बोलने का, fb पे डालने का, भर पेट खा के गरीबी पे भोर तक विमर्श कर भावुक होने का लाभ लेना चाहिए। मुझे नही पता था, इसमें इतना आनन्द है, कितना सुकून मिकते है ये सब कर। गरीबों को आगे बढ़ एक बर्गर दे देना इत्यादि। ओह् मज़ा आ जाता है मार्क्स, थैंक्स कि दुनिया में गरीब भी हैं, वरना ये एन्जॉय तो फ़ील ही नही कर पाते हम।

तुमने हमे बताया कि, सवाल खड़े करो। आज युवाओं में सब कुछ खड़ा करने की झक चढ़ गई है।जिन युवाओं से कभी डबल स्टैंड राजदूत मोटरसायिकील भी न खड़ा हो पाया वे तुम्हारे नाम का साथ पा हर बात पे सवाल खड़ा, हाथ खड़ा,गोड़ खड़ा,अंग अंग खड़ा कर रहे हैं।कितना खड़ंजा प्रेरणा मिल रहा युवा शक्ति को।
हम जैसे लड़के जो अपने बेड का चादर तीन महीने से नही बदल पाये हैं, वे fb से देश बदल देने का जो भोकाल पेलते हैं, तुम्हारे ही नाम के कारण तो इतना उच्च स्तरीय और विश्वसनीय बकैती कर पाते हैं हम।
तुमने हमे हिम्मत दी कि सत्ता से लड़ो। हम बाप के पैसे पे पलने वाले के लिए तत्काल बाप से बड़ी कोई सत्ता थी नही। सो बस रोज बाप से मुँह लड़ाते हैं, उनको चुनौती देते रहते हैं। रोज अपने विचार से हिलाते हैं उसी बाप को, जिसका खाते हैं तो मुँह से आवाज़ निकल पाता है। जिसका खाओ,उसी को भाषण पिलाओ, ये सुख तुम्हरे नाम पे ही लिया जा सकता था हे मार्क्स।
हर मार्क्सवादी सत्ता के नाम पे पहला विद्रोह बाप का करता है, करना ही चाहिये क्योंकि दूसरा किसी का करियेगा तो मार के मुँह हाथ फुला देगा आपकी वैचारिक बकैती सुन। एक बाप ही है जो आपके मार्क्सवाद और आपको आपके दार्शनिक क्रांक्तिकारी हो जाने के भरम को इंजॉय करने दे देता है। मन तो बाप का भी करता होगा कि मार के छाती तोड़ दें इस कुलंगार का।

हे ब्रो, तुम आये बाहर आई। तुम न होते तो हमारी जवानी बेकार ही जाती। सौभाग्यशाली हैं वे भारतीय जो बुढापे तक तुम्हारे साथ हैं। इनको तो मरते वक्त गोदान का भी खर्च बच जाएगा।
पैदा होते ही मनुपुत्र की गाली सुन सुन पक चुके हम लडकों को तुम्हारा ही सहारा मिला जब हम मार्क्सवादी बन खुद को कंसों के बीच कृष्ण कहने का आनन्द ले पाये। हम मनुवादी अत्याचारी से डाइरेक्ट उदार मसीहा में बदल गए ,तुम्हरे नाम पे ही ये गोलेबाज़ी कर पाए।
हे ब्रो मार्क्स, बहुत बहुत शुक्रिया पैदा हो हमे बचाने के लिए। खुल कर जी,पी, खा, लेने का एक नैतिक,वैचारिक आधार देने के लिए।
बस एक समस्या हल कर दो मार्क्स, तुम्हारे नाम पर रोज गांजा पीता हूँ खुल के। अफीम चाट के गरीबों के बारे में सोंचता रहता हूँ। एक दिन एक बेहूदा आदमी बगल में आ बैठ गया, बोला ” मार्क्स ने कहा ,धर्म अफ़ीम है,इसलिए धर्म छोड़ दो। तुमने धर्म छोड़ दिया, अफ़ीम काहे नही छोड़ते बे साले?”
हे ब्रो मार्क्स, इन बदमाशों को क्या जवाब दूँ? या चुपचाप पीता हूँ..बोलने दो जिसको जो बोलना है।जय हो।

(नीलोत्पल मृणाल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)