टूट रहा सिमुलतला को नेतरहाट बनाने का सपना

लगातार बेहतर रिजल्ट देने के बावजूद बिहार के छात्र-छात्राओं में कभी वैसी ललक पैदा नहीं हुई जैसी नेतरहाट में एडमिशन के लिए होती थी. यही नहीं लगातार आवेदन घटते गये।

New Delhi, May 09 : झारखंड अलग हुआ तो बिहार सरकार ने तय किया कि हम नेतरहाट जैसा आवासीय विद्यालय अपने यहां भी बनायेंगे. यह विद्यालय पढ़ाई-लिखाई, रिजल्ट और कैरियर के मसले पर नेतरहाट की टक्कर का होगा. इसी कोशिश में सिमुलतल्ला में आवासीय विद्यालय की स्थापना की गयी. मगर अपनी स्थापना के सात-आठ साल में ही यह विद्यालय थक कर रेंगता हुआ नजर आ रहा है. लगातार बेहतर रिजल्ट देने के बावजूद बिहार के छात्र-छात्राओं में कभी वैसी ललक पैदा नहीं हुई जैसी नेतरहाट में एडमिशन के लिए होती थी. यही नहीं लगातार आवेदन घटते गये. इस साल तो शुरुआत में सिर्फ 500 आवेदन आये थे, बाद में आवेदन के लिए स्पेशल ड्राइव चलाया गया. खबर है कि हॉस्टल की अव्यवस्था, संसाधनों के अभाव और शिक्षकों की कमी के कारण बच्चे यहां जाने के नाम से हिचकते हैं. और अनिश्चित भविष्य की वजह से शिक्षक नौकरी छोड़कर जा रहे हैं.

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9 अगस्त 2010 को सिमुलतल्ला आवासीय विद्यालय की एक सोसाइटी का गठन कर की गयी थी. इस सोसाइटी के अध्यक्ष जिला स्तर पर डीएम और राज्य स्तर पर शिक्षा मंत्री होते हैं. इसके अलावा इस कमिटी में नेतरहाट ओल्ड ब्वायज एसोसियेशन के लोगों को भी शामिल किया जाता है, ताकि वे इसका संचालन नेतरहाट विद्यालय की तर्ज पर ही सुनिश्चित करा सकें. मगर स्थापना के वक्त से ही इस समिति में कई गड़बड़ियां रह गयीं. इसका आज तक अकाउंट भी नहीं खुला है, कोरम भी पूरा नहीं होता है. ऐसा लगता है कि स्थापना के बाद सरकार इस विद्यालय को भूल गयी.

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आज यह विद्यालय बंगालियों की कोठी में संचालित होता है. इनमें से कुछ कोठियां खरीदी गयी हैं, कुछ किराये पर ली गयी हैं. और कुछ अस्थायी किस्म की संरचनाएं खड़ी की गयी हैं, जहां हॉस्टल संचालित होता है. दिलचस्प है कि इस विद्यालय के निर्माण के लिए ग्रामीणों ने 76 एकड़ जमीन का दान किया गया था, मगर वहां विद्यालय का स्थायी भवन बनाने का कभी प्रयास नहीं किया गया. इसके बदले जीर्ण-शीर्ण कोठियों को खरीदा जा रहा है. छात्र-छात्राएं ऐसे ही भवनों में किसी तरह रहते हैं.
बताया जा रहा है कि यहां के मेस का भी हाल बुरा है. खाने की गुणवत्ता इतनी घटिया है कि बच्चों ने इसका नाम कपिला पशु आहार रख दिया है. बच्चे बीमार पड़ते हैं तो अभिभावक उनका नाम कटाकर उन्हें घर ले जाते हैं.

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जब इस विद्यालय की स्थापना हुई थी तो छात्र-छात्राओं में इसे लेकर ठीक-ठाक क्रेज था और पहले साल यहां 160 सीटों (60 छात्र-60 छात्राएं) नामांकन के लिए 34 हजार आवेदन आये थे. मगर यहां की अव्यवस्था को देखते हुए यहां आवेदन लगातार घटने लगा. इस साल तो निर्धारित तिथि तक महज 500 आवेदन ही आये. फिर आवेदन के लिए स्पेशल ड्राइव चलाया गया.
महज आठ सालों में यहां छह शिक्षक नौकरी छोड़ चुके हैं. इनमें यहां के प्रथम प्राचार्य भी हैं. दरअसल यहां नियुक्ति के वक्त शिक्षकों से वादा किया गया था कि उन्हें नेतरहाट की तर्ज पर असिस्टेंट प्रोफेसर का वेतनमान मिलेगा. मगर अभी तक उन्हें नियोजित शिक्षकों जैसा वेतन ही मिलता है.

हालांकि इन तमाम अव्यवस्थाओं के बावजूद इस स्कूल का रिजल्ट दसवीं में बेहतरीन रहता है. 2015 में जब पहली बार यहां के बच्चों ने मैट्रिक परीक्षा दी तो बिहार टॉप टेन में यहां के 30 बच्चे शामिल थे. और टॉप 20 में सारे 120 बच्चे. 2016 में टॉप टेन में 42 बच्चे इसी स्कूल के थे, 2017 में रिजल्ट गड़बड़ाया और टॉप टेन में इस स्कूल के सिर्फ 15 बच्चे ही शामिल हो पाये. 12 से 15 पूर्व छात्र आईआईटी में पढ़ाई कर रहे हैं. दो मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं.
जिस ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्र यहां एडमिशन लेते हैं, उस लिहाज से रिजल्ट काफी सराहनीय है. मगर इसकी स्थिति लगातार खराब हो रही है. नवोदय विद्यालय की तर्ज पर यहां खाना-पीना, कॉपी-किताब, कपड़े, रहना लगभग तमाम जरूरी चीजें मुफ्त में छात्रों को मिलती हैं. केवल इनकम टैक्स पेयरों से कुछ राशि ली जाती है. इसके बावजूद राज्य के छात्रों का रुझान इस लगातार घट रहा है. वजह सिर्फ अव्यवस्था और सरकारी उदासीनता है. इस विद्यालय का उदाहरण बताता है कि सपने देखने और बात है, उसे पूरा करना सबके बस की बात नहीं. खास कर बिहार की लचर प्रशासनिक व्यवस्था की.

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)