साम्प्रदायिक सौहार्द्र का झूठ

हम स्वीकार नहीं करते, क्योंकि ऐसा कहने के लिए कुछ कड़वी बातें करनी होंगी। कहने वाले को बुरा बनना होगा। और यहीं हमारा बौधिक वर्ग सालों से नाकाम रहा है।

New Delhi, May 14 : हिंदुस्तान में साम्प्रदायिक सौहार्द्र से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या ये है कि समस्या की जड़ पर बात करने के बजाए हम खुद को भावुक जुमलों में उलझाए रखते हैं। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि सैंकड़ों सालों से साथ रहने के बजाए आज भी स्कूटर पर मुस्लिम बच्चे के कृष्ण बने होने की तस्वीरें हमें चौंका देती हैं। ये किस तरह की गंगा-जमनी संस्कृति की बात हम करते हैं जिसमें सालों तक साथ-साथ रहने के बात तो करते हैं मगर कभी इस बात पर सवाल नहीं उठाते कि अगर ऐसा ही भाईचारा, प्यार मोहब्बत है तो अब तक हिंदू-मुसलमानों के बीच शादियां होना आम हो जाना चाहिए था।

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आम होना तो दूर की बात है दो गैर मज़हबी लोग प्यार भी कर लें, तो शादी की सोचकर उनकी रूह कांप जाती है। क्या गंगा-जमनी संस्कृति अपने साथ सीमाएँ लेकर आती है। fireमतलब आप ईद पर सेवइयां तो खा सकते हैं, दूसरे को दिवाली की बधाई तो दे सकते हैं मगर अपने प्यार को इसके आगे नहीं ले जा सकते।

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संस्कृति और भाइचारे का मतलब क्या ये होता है कि सामने वाले को उसके कट्टरता के कंफर्ट ज़ोन में रहने दिया जाए। और ऐसा कुछ भी न करें जिससे उसे अपनी मान्यताओं से बाहर निकलने में तकलीफ हो। क्या इसे कहते हैं गंगा-जमनी संस्कृति?
और ये बात जितनी धर्म के लिए सही है उतनी ही जातीय कट्टरता के लिए भी। कितने लोग यहां ऐसे हैं जो धार्मिक कट्टरता के लिए दूसरे को दिनभर गरिया लेंगे मगर उनसे पूछ के देखो, धर्म छोड़ो वो अपनी ही जाति में अलग गोत्र में अपने बच्चे को शादी नहीं करने देंगे।
कब तक हम इन झूठी बातों से अपना दिल बहलाते रहेंगे कि फलांने गणेश पंडाल में लगने वाली मूर्तियों को मुस्लिम कलाकार बनाते हैं। हम क्यूं अपना झूठा होना, कट्टर होना स्वीकार नहीं करते?

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हम स्वीकार नहीं करते, क्योंकि ऐसा कहने के लिए कुछ कड़वी बातें करनी होंगी। कहने वाले को बुरा बनना होगा। और यहीं हमारा बौधिक वर्ग सालों से नाकाम रहा है। उसे कडवा सच कहने से डर लगता है। लोकप्रियता का मोह वो गंवाना नहीं चाहता। किसी भी समाज में बौधिक वर्ग की ये ज़िम्मेदारी होती है कि वो बिना नफे-नुकसान की परवाह किए, बिना संतुलन साधने की चिंता किए ईमानदारी से सच को सच, और झूठ को झूठ कहे। मगर अफसोस हमारे यहां ऐसा कभी नहीं हुआ। यही वजह है कि दिलों में नफरत पाले प्यार-मोहब्बत की न जाने कितनी झूठी बातें हम सालों से सुनते आ रहे हैं। और यही झूठ वक्त के साथ नासूर बन गया है जो अब कभी भी फूट सकता है।

(पत्रकार निरज बधवार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)