2019 में बीजेपी का मुकाबला क्षेत्रीय दलों से?

इस बार राज्यसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों ने जिस तरह अपनी भूमिका निभाई है वो 2019 में बड़ी तस्वीर पेश कर सकती है।

New Delhi, May 15 : 2014 के मुकाबले 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों की तस्वीर कैसी रह सकती है। क्या बीजेपी फिर से सभी दलों का सफाया करते हुए दोबारा सत्ता पर काबिज होने जा रही है या इस बार कांग्रेस राहुल गांधी की अगुवाई में बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है? या फिर ये भी हो सकता है क्षेत्रीय दलों का हाथ मिलाना कुछ नया खेल दिखाए? वैसे अगर आंकलन करने की कोशिश की जाये तो 2019 में बीजेपी के लिए कांग्रेस उतना बड़ा खतरा नहीं लग रही है, लेकिन अलग-अलग राज्यों में मौजूद क्षेत्रीय दल उसके लिए मिशन 2019 को मुश्किल कर सकते हैं।

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जिस तरह पिछले एक-सवा साल के दौरान देश में छोटे दलों की सक्रियता बढ़ी है और इन दलों ने जहां भी हाथ मिलाया है वहां पूरी मजबूती के साथ राष्ट्रीय दलों को पीछे भी धकेला है। उत्तर प्रदेश में हुए दोनों लोकसभा चुनावों में दोनों विरोधी पार्टी सपा और बसपा एक साथ आईं तो प्रदेश की सबसे मजबूत पार्टी बीजेपी को दोनों सीटें गंवानी पड़ीं। हालांकि राज्यसभा चुनावों का लोकसभा चुनावों पर बहुत ज्यादा असर अक्सर दिखाई नहीं देता लेकिन इस बार आंकड़ें ये कहते हैं कि इनका विश्लेषण करना भी अब जरूरी हो गया है। इस बार राज्यसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों ने जिस तरह अपनी भूमिका निभाई है वो 2019 में बड़ी तस्वीर पेश कर सकती है। हालांकि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के गठजोड़ ने लोकसभा की दोनों सीटें निकाल लीं लेकिन राज्यसभा में जब बसपा को हार मिली तो मायावती ने इसका ठीकरा सपा पर नहीं फोड़ा। ये बीजेपी के लिए गंभीर हो सकता है। झारखंड में कांग्रेस का संख्या बल उतना नहीं था इसके बावजूद झारखंड मुक्ति मोर्चा के समर्थन से कांग्रेस उम्मीदवार राज्यसभा पहुंचा। पश्चिम बंगाल में ममता दीदी ने कांग्रेस को समर्थन दिया और केरल में लेफ्ट ने शरद यादव गुट के प्रत्याशी को जिताकर राज्यसभा में भेजा। ये आंकड़े 2019 में बीजेपी को अपनी रणनीति बदलने के लिए संकेत कर सकते हैं। यहां ये बात भी महत्वपूर्ण होती है कि क्या ये सभी दल आपस में मिलकर रह भी पाएंगे? क्या कांग्रेस अपने सहयोगियों को संभाल पाएगी? क्षेत्रीय दल मजबूत होंगे तो क्या कांग्रेस और ज्यादा कमजोर नहीं होगी?

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TDP के चंद्रबाबू नाडयू के NDA से बाहर होने का नतीजा भी बीजेपी के लिए थोड़ा चिंता का विषय हो सकता है। हरियाणा और पंजाब जैसे छोटे प्रदेश समेत उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और कर्नाटक में क्षेत्रीय दलों का काफी दबदबा रहा है। यही वजह है कि हम मान सकते हैं कि पिछले चुनावों में कांग्रेस कई राज्यों में तो चौथे से पांचवें स्थान पर रही है। 1996 से लेकर 2014 के लोकसभा चुनावों तक के आंकड़ों पर गौर करें तो बीजेपी और कांग्रेस ने मिलकर करीब 50 फीसदी वोट हर चुनावों में लिए हैं जबकि 50 फीसदी इन छोटे दलों के खाते में आये हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में दोनों दलों के वोट प्रतिशत को मिलाएं तो ये करीब 51 फीसदी के आसपास बैठता है और इन दोनों दलों की सीटें 326 बनती हैं, जबकि क्षेत्रीय दलों को 49 फीसदी के करीब वोट मिले। मतलब इतने प्रचंड बहुमत के बावजूद दोनों दलों के वोट से करीब दो फीसदी ही कम। एक आंकड़ा और सभी के लिए चौकाने वाला है कि पिछले छह लोकसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय दलों के वोट प्रतिशत पर कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं पड़ा है जबकि कांग्रेस और बीजेपी का वोट प्रतिशत ऊपर नीचे होता रहा है। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है 2014 के लोकसभा चुनावों में सपा और बसपा अलग अलग लड़े थे लेकिन दोनों के वोट प्रतिशत को मिलाया जाये तो 42.12 फीसदी बनता है जो कि बीजेपी से 0.5 फीसदी ही कम है लेकिन इसका फायदा पूरी तरह बीजेपी को मिला और पार्टी उत्तर प्रदेश में 71 सीटें जीतने में कामयाब रही, जबकि सपा को सिर्फ पांच सीटें मिलीं और बसपा खाली हाथ रही।

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अब सवाल ये उठता है कि क्या कांग्रेस इस अवसर को भुना पाएगी। राहुल गांधी कह चुके हैं कि अगर संख्या बल अच्छा मिलता है तो वो प्रधानमंत्री बनने को तैयार हैं लेकिन क्या यूपीए के घटक दल भी ऐसा मानते हैं। मायावती को पहले ही तीसरे मोर्चो में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की कोशिश की जा रही हैं। हरियाणा में बकायदा इनेलो की ओर से इसको लेकर बयान भी दिया जा चुका है। मतलब साफ है कि यदि कांग्रेस इसी तरह कमजोर रही तो 2019 में बीजेपी का मुकाबला क्षेत्रीय दलों से होने जा रहा है। कांग्रेस अगर मजबूत होती है तो निश्चित तौर पर वो बीजेपी को तो नुकसान करे ना करे लेकिन उसके घटक दलों को क्या ये मंजूर होगा। कुछ राजनीति के पंडित तो ये कहने लगे हैं कि अगर बीजेपी को 2019 के लिए अपना रास्ता आसान करना तो विपक्ष यानि क्षेत्रिय दलों में फूट और कांग्रेस की थोड़ी मजबूती उसके लिए जरूरी हो गई है।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप डबास के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)