किसने घोंटा लोकतंत्र का गला ?

पिछले विस चुनाव में भाजपा और जनता एस-दोनों को चालीस-चालीस सीटें हासिल हुई थीं। चूकि येदियुरप्पा भाजपा से अलग हो गये थे, इसलिये उन्होंने अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा।

New Delhi, May 21 : शनिवार को कर्नाटक में जो कुछ हुआ, वह लोकतंत्र के साथ तो क्रूर मजाक है ही, जिस प्रकार मुख्य धारा के मीडिया और सोशल मीडिया में एक वर्ग विशेष के लोगों ने इसे प्रस्तुत किया, वह और भी आश्चर्य जनक है। जिन दो पार्टियों को इस विधानसभा चुनाव में राज्य की जनता ने पूरी तरह नकार दिया, वही सरकार गठित करने जा रही हैं। लोकतंत्र के साथ इससे क्रूर मजाक और कुछ नहीं हो सकता। जो कुमार स्वामी तीसरे दर्जे की पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं, वह प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। जिस कांग्रेस पार्टी के पांच साल के शासन से परेशान होकर लोगों ने उससे मुक्ति पाने के लिये वोट डाले थे, वह उसी पार्टी के चेहरे अब फिर मंत्रीमंडल में देखने को अभिशप्त होंगे।

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खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की खुली मुखालफत करने वाले पत्रकार सोशल मीडिया और टीवी चैनलों के परदों पर बहुमत के मुहाने पर खड़ी भारतीय जनता पार्टी की सरकार के सदन में गिर जाने से इतनी खुशी का इजहार कर रहे हैं, मानों उनकी बरसों की मुराद पूरी हो गयी है। जिन दो दलों को वहां की जनता ने बुरी तरह नाकारा है, उनके नापाक हाथ मिलाने को लेकर यह खेमा छलांगें मारकर बेशर्मी के साथ खुशी का इजहार करता नजर आ रहा है।
224 के सदन में बहुमत के लिये 113 विधायकों के समर्थन की दरकार होती है। चूकि चुनाव 222 सीटों के लिये हुआ है, इसलिये 112 विधायकों की दरकार थी। किसी भी एक दल को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हुआ परंतु भाजपा बहुमत के काफी करीब तक पहुंच गयी। उसे 104 सीटें हासिल हुई। दूसरे स्थान पर कांग्रेस रही, जिसे 78 सीटें प्राप्त हुई। तीसरे स्थान पर कुमार स्वामी की जनता दल एस खड़ी है, जिसे 222 में से केवल 37 सीटें ही मिली हैं। लोकतंत्र में इससे बड़ा मजाक भला और क्या हो सकता है कि 37 सीटें हासिल करने वाली पार्टी का नेता राज्य की कमान संभाले। इतिहास खुद को दोहरा रहा है। 1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी सदन में बहुमत सिद्ध नहीं कर सके तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। जैसे येदियुरप्पा ने दिया है। उनके बाद एचडी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री चुन लिया गया और वह तब तक उस पद पर रहे, जब तक कांग्रेस ने समर्थन का हाथ नहीं खींच लिया। भाजपा ने कर्नाटक में बहुमत हासिल करने के लिये खरीद फरोख्त नहीं की। नतीजतन येदियुरप्पा की सरकार सदन में गिर गयी। अटल के बाद देवेगौड़ा ने शपथ ली थी। अब उसी कांग्रेस के समर्थन से सबसे छोटी पार्टी के मुखिया और देवेगौड़ा के सुपुत्र कुमार स्वामी सोमवार को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे।

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पिछले विस चुनाव में भाजपा और जनता एस-दोनों को चालीस-चालीस सीटें हासिल हुई थीं। चूकि येदियुरप्पा भाजपा से अलग हो गये थे, इसलिये उन्होंने अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा। भाजपा के वोट बंट गये। उसका सीधा फायदा कांग्रेस को हुआ, जिसे 122 सीटें मिल गयी। इस बीच येदियुरप्पा की भाजपा में न केवल वापसी हुई, बल्कि उन्हीं को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर पार्टी चुनाव मैदान में उतरी। वह लिंगायत समुदाय से आते हैं। चुनाव से ठीक पहले लिंगायत को अल्पसंख्यक का दर्जा देने का ऐलान करके कांग्रेस ने उनके आधार को कमजोर करने का बड़ा दांव खेला परंतु नतीजे बताते हैं कि वह पूरी तरह विफल हो गया। इस चुनाव में कर्नाटक के लोगों ने फिर से भारतीय जनता पार्टी को खुले मन से जनादेश दिया। उसकी सीटें 40 से बढ़कर 104 तक पहुंच गयी। यानी 2013 के मुकाबले उसकी 64 सीटें बढ़ गयी। इसके विपरीत जनता दल एस और कांग्रेस दोनों की ही सीटें घटीं। कांग्रेस की तो 44 सीटें घट गयी। इस तरह देखें तो लोकप्रिय जनादेश मिला भाजपा को, लेकिन सरकार कौन बना रहा है ? चुनाव हारने वाले दो दल। जनता दल एस और कांग्रेस। इससे बड़ा मजाक भला और क्या हो सकता है ?

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राज्यपाल ने परंपरा और सुप्रीम कोर्ट के ही कुछ पुराने फैसलों के मद्देनजर 104 सीटें हासिल करके सबसे बड़े दल ( और बहुमत के काफी करीब ) भाजपा को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया। येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण को रोकने के लिये आधी रात में कांग्रेस और जनता दल एस सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर पहुमच गये। पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस ने महाभियोग लाकर जिस तरह का दबाव न्यायापालिका पर बनाया है, उसी का असर सुप्रीम कोर्ट पर साफ साफ दिखायी दिया। अदालत ने शपथ ग्रहण समारोह को तो नहीं रोका परंतु राज्यपाल ने बहुमत सिद्ध करने के लिये भाजपा सरकार को जो पंद्रह दिन का समय दिया था, उसमें बड़ी कटौती करते हुए आदेश दिया कि कल शाम तक बहुमत साबित साबित करें। संभवतः ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। अल्पमत सरकार जब भी बनी हैं, मुख्यमंत्री को कम से कम सात दिन का समय तो मिला ही है। यदि किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला है और स्थायी सरकार बनाने और चलाने के लिये राज्यपाल सबसे बड़े दल को आमंत्रित कर रहे हैं तो उन्होंने कौन सा पाप कर दिया है ? क्या अतीत में ऐसा कभी नहीं हुआ है ? लेकिन इस पर मुख्य धारा के मीडिया और सोशल मीडिया में इस कदर हल्ला मचाया गया, मानो राज्यपाल ने कोई अनहोनी कर दी है।

लगातार चुनाव हारती जा रही कांग्रेस के हाथों से कर्नाटक भी निकल गया था। राहुल गांधी को एक और करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। 47 जनसभाएं करने के बावजूद वह सिद्धारमैया सरकार को बचाने में पूरी तरह विफल हो गये थे। जनता ने भाजपा को वोट दिया था। यही वजह थी कि उसकी सीटें चालीस से बढ़कर एक सौ चार पहुंच गयी। बहुमत के जादुई आंकड़े से केनव आठ सीटें कम परंतु जिस दल को लोकप्रिय जनादेश मिला, उसके बारे में लगातार प्रेस कांफ्रैंस करके, सुप्रीम कोर्ट की दौड़ लगाकर और मीडिया के जरिये ऐसा वातावरण बनाया गया जैसे वह सरकार बनाकर लोकतंत्र की हत्या कर रही है और कांग्रेस के साथ बड़ा भारी अन्याय हो रहा है। राहुल गांधी के बयान देखिये। एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि हमारी आवाज को दबाया जा रहा है। लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। वास्तविकता क्या है ? वास्तव में लोकतंत्र का गला किसने घोंटा है ? लोकप्रिय जनादेश का किसने अपमान किया है ? जिन दो दलों को लोगों ने रिजेक्ट किया था, संख्या के खेल के बल पर उन्होंने जनादेश को धता बताते हुए उस राजनीतिक दल को लोगों का नेतृत्व करने के हक से वंचित कर दिया, जिसे वास्तव में जनादेश मिला था। कर्नाटक में शनिवार को जो कुछ हुआ, लोकतंत्र में उससे शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। हारी हुई बाजी कैसे जीती जा सकती है, यह घटना इसका ज्वलंत और निकृष्टतम उदाहरण है।

(वरिष्ठ पत्रकार ओमकार चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)