क्या भाजपा को खतरे की घंटी सुनाई दे रही है ?

मोदी का जादू अभी बना हुआ है। यदि वह खत्म हो गया होता तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा में नए नेता की तलाश शुरु हो जाती।

New Delhi, Jun 04 : लोकसभा चुनाव के बाद देश में जगह-जगह होनेवाले उप-चुनाव अगले लोकसभा चुनाव का आईना हों, यह जरुरी नहीं है। इन उप-चुनावों में प्रायः प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री प्रचार करना भी जरुरी नहीं समझते लेकिन 2014 के बाद देश के 14 राज्यों की 27 संसदीय सीटों पर चुनाव हुए। इन लगभग सभी सीटों को भाजपा के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और शीर्ष नेताओं ने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया, जिसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसका नतीजा क्या निकला ? 27 संसदीय उप-चुनावों में भाजपा सिर्फ 5 में जीती। इन 27 में से 13 सीटें भाजपा के पास थीं। इनमें से 8 उसने खो दीं। उसने 2014 के बाद एक भी नई सीट नहीं जीती। इसका अर्थ क्या है ?

Advertisement

भाजपा ने अपनी संसदीय सीटें कहां खोई हैं ? उन राज्यों में खोई हैं, जहां उसका शासन है और वह भी प्रचंड बहुमत से है। मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश जैसे प्रांतों में भाजपा की हार का कारण क्या है ? उत्तर प्रदेश में तो उसे अपूर्व बहुमत मिला था लेकिन वहां जिन सीटों पर पहले हारी, उनमें से एक मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की थी और दूसरी उप-मुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य की थी। और अब एक ताजा मर्मांतक घाव और भी लग गया है। अब वह पश्चिमी उप्र में कैराना की वह सीट भी हार गई, जो उसके सांसद की मृत्यु हो जाने से खाली हुई थी। दिवंगत सांसद की बेटी को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया लेकिन तुरुप का यह पत्ता भी नाकाम रहां नूरपुर की विधानसभा भी भाजपा हार गई। दोनों सीटों से दो मुसलमान उम्मीदवार चुने गए। दोनों चुनाव-क्षेत्र हिंदू-बहुल हैं। भाजपा के लिए यह हार न तो स्थानीय हार है और न ही उप-चुनाव की मामूली हार है।

Advertisement

28 मई को हुए उप-चुनावों में चार संसदीय सीटों में सिर्फ एक भाजपा को मिली और 11 विधानसभा सीटों में से उत्तराखंड की एक सीट मिली। अब संसद में भाजपा का स्पष्ट बहुमत भी खटाई में पड़ता दिखाई पड़ रहा है। अब उसके पास सिर्फ 272 सीटें रह गई हैं, जो बहुमत के लिए न्यूनतम है। 2014 में उसे 282 सीटें मिली थीं। उसका वोटों का प्रतिशत भी घटता जा रहा है। गुजरात में तो किसी तरह उसकी इज्जत बच गई लेकिन कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने के बावजूद उसकी कुल वोट संख्या कांग्रेस से कम रही। 2014 में उसे पूरे देश में हुए मतदान में से केवल 31 प्रतिशत वोट मिले थे। अब यक्ष-प्रश्न यही है कि उसने इतने ही या इनसे भी कम वोट मिले तो क्या वह 2019 में फिर से सरकार बना पाएगी ?

Advertisement

जाहिर है कि देश में आज तक एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी है, जिसे कुल वोटों का तो क्या, कुल मतदान का 50 प्रतिशत भी मिला हो। इसीलिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का 50 प्रतिशत वोट पाने का लक्ष्य तो सिर्फ एक हवाई किला है लेकिन पिछले चार वर्षों में हुए उप-चुनाव का यह स्पष्ट संकेत है कि 2019 में भाजपा को 31 प्रतिशत वोट मिल जाएं, यह भी गनीमत है। मान लें कि 31 न सही, 30 प्रतिशत मिल जाएं तो भी वर्तमान हवा चलती रही तो भाजपा के पास अभी जितनी सीटें हैं, उनकी आधी भी रह जाएं तो आश्चर्य होगा, क्योंकि जैसे कैराना और नूरपुर में विरोधी दलों का एका हो जाने पर भाजपा को मिले ज्यादा वोट भी काफी कम पड़ गए। जरा सोचिए कि कर्नाटक में यदि कांग्रेस और जनता दल (से.) मिलकर लड़ते तो भाजपा को कितनी सीटें मिलतीं ? यही परिदृश्य अगले कुछ माह में यदि सारे भारत में फैल गया तो दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी को किसी ईश्वरीय चमत्कार की शरण में जाना पड़ेगा, अपनी कुर्सी बचाने के लिए !

भाजपा के नेता और कुछ भोले पत्रकार भी यह कहते नहीं थकते कि देश के लगभग दो दर्जन प्रांतों में भाजपा की सरकारें हैं। मोटे तौर पर यह सही माना जा सकता है लेकिन जरा गहरे उतरें तो मालूम पड़ेगा कि देश के लगभग आधे राज्यों की विधानसभाओं में भाजपा के आधा-आधा दर्जन सदस्य भी नहीं हैं। गोवा, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, असम जैसे राज्यों में भाजपा का पाया कितना मजबूत है, इसे भाजपा अध्यक्ष से ज्यादा कौन जानता है ? चंद्रबाबू नायडू ने बगावत का झंडा उठा लिया है, शिव सेना शुरु से ही पलीता लगा रही है, नीतीशकुमार की नीति का किसी को कुछ पता नहीं, महबूबा कब क्या कर बैठे, कौन जाने और अकाली दल भी पसोपेश में है। भाजपा के गठबंधनवाले अन्य दल भी सोच-विचार की वेला में हैं।

तो प्रश्न यह है कि क्या मोदी का जादू हवा हो गया है ? क्या 2019 में वह अब काम नहीं करेगा ? मोदी का जादू अभी बना हुआ है। यदि वह खत्म हो गया होता तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा में नए नेता की तलाश शुरु हो जाती। सत्ता का खेल बड़ा बेमुरव्वत होता है। सारा जीवन खपा देनेवाले लालकृष्ण आडवाणी और उनके पहले बलराज मधोक को कैसे दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया गया था। मोदी का जादू फीका जरुर पड़ा है लेकिन उसकी सास अभी चल रही है, क्योंकि उसके मुकाबले अभी तक कोई दमखमदार विरोधी नेता उभरा नहीं है। विरोध में जितने भी नेता हैं, उनमें से कोई भी अपने को मोदी से कम नहीं समझता। वे एक-दूसरे से तालमेल कैसे करेंगे ? मोदी-जैसा स्वच्छ छवि-वाले नेता देश में कितने हैं ? और फिर बड़ी समस्या यह है कि इन नेताओं के पास सबल और संपन्न भारत का कोई वैकल्पिक नक्शा भी नहीं है। इन्होंने अपने-अपने राज्यों में कोई चमत्कारी काम भी नहीं किए हैं, जिनके आधार पर कोई अखिल भारतीय विकल्प खड़ा किया जा सके।

यदि कोई विकल्प खड़ा होता है तो उसमें कांग्रेस की भूमिका अग्रगण्य होगी। कांग्रेस ने कैराना और नूरपुर में अपने को पीछे रखा तो वह आगे बढ़ गई। उसका रास्ता खुल गया। सारे देश में आज भी उसके कार्यकर्त्ता और उसकी शाखाएं हर जिले में हैं। यदि उसके पास कोई परिपक्व और समझदार नेता होता तो वह सत्तारुढ़ लोगों की कंपकंपी छुड़ा देता। कांग्रेस अध्यक्ष कोई भी रहे लेकिन वह प्रधानमंत्री बनने की जिद न करे और अन्य पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं का उचित सम्मान करे तो कोई आश्चर्य नहीं कि 2019 के काफी पहले ही एक सशक्त विकल्प खड़ा हो सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत खुले-आम कह चुके हैं कि कांग्रेसमुक्त भारत का नारा उन्हें पसंद नहीं है। किसी भी जीवंत लोकतंत्र में दो राष्ट्रीय विरोधी दल होने जरुरी हैं। यह कितनी अच्छी बात है कि कांग्रेस के मंजे हुए नेता प्रणब मुखर्जी को उन्होंने संघ के उत्सव में नागपुर आमंत्रित किया है।

यदि मोदी हार जाते हैं और देश में विरोधियों की कोई गड्मड्ड सरकार बन भी जाती है, तो वह चलेगी कितने दिन ? हम मोरारजी, चरणसिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा और गुजराल की हांपती-कांपती सरकारों को पहले ही देख चुके हैं। वे कुछ महिनों या दो-ढाई साल की मेहमान होती हैं। उनके कार्यकाल में कौनसे स्थायी या चमत्कारी काम हो पाते हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि 30 वर्षों में पहली बार बनी स्पष्ट बहुमत की यह सरकार अभी तक ऐसे काम नहीं कर सकी, जिनके चलते वे उप-चुनाव उसके लिए खतरे की घंटी नहीं बनते। खतरे की इस घंटी को टालने के उपाय कई हैं लेकिन अब समय बहुत कम रह गया है।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)